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विकास बिना संस्कार, विनाश का आधार!

संघ और भाजपा की विकास नीति सफल हो रही है यह देख कर आनंद होता है। इस से गांधीवादी , रामराज्यवादी , कौटिल्यवादी, जेपीभक्त, और हिन्दुवादी ये सभी फूले नहीं समा रहे है। कांग्रेसी, कौम्युनिस्ट, और अत्याधुनिक वोकवादी लूटे पिटे से फिर रहे हैं। भविष्य में विश्व गुरु भारत का वसुधैव कुटुंब साकार होता लगता है।

कोई शक?
यस सर।
भीषण विकास अमरीका में हुआ। सन् पचास से। आज अमरीका कहाँ है? ऋण के कूप में !!!
हर प्रकार का ऋण , केवल आर्थिक ही नहीं !! उन मौलिक जातियों का , प्रवासी जातियों का, और बौद्धिक संस्कृतियों का, जिन्होंने अमरीकी राष्ट्र का निर्माण किया। ऋण चुकाने की बजाए अमरीकी सत्ता की नीति ऋण दाताओं को दमन या युद्ध से दुर्बल करने की है जिसका परिणाम आत्मघात है। चीन भी लगभग उसी प्रक्रिया का शिकार है।
क्या यह सब देख कर भारत के कर्णधारों की आँखें नहीं खुल जानी चाहिए?

अमरीका-यूरोप ने ग्रीक सिद्धांत, अति का वर्जन करो और सुख को उत्कृष्ट मानसिकता बनाओ ( यूदाईमोनिया ) की अनदेखी करी। चीन ने कॉन्फ़्यूशस की मध्यमता सिद्धांत को त्याग मारक्षवाद का सहारा लिया।
आज वह एक अविश्वसनीय पहलवान बन गया है।

तो भारत के लिए विकास गर्त से बचने का क्या मार्ग है ?

उस भूल को न करना जो पश्चिम और चीन में हुई। कौनसी? अपने मौलिक सांस्कृतिक मूल्यों का अवमान।

संस्कार केवल सम्मेलनों से , मैकाले मर्दन से, नेहरू परिवार निंदा से , विदेशी कुचालक एजेंटों को चिह्नित करने से
, या कितने ही पूर्वपक्ष और शत्रुबोध कराने वाले सेमीनार सत्रों से नहीं बन जाते !!

उनके लिए गुरुकुल, दर्शन, साहित्य , नाट्य, नृत्य, संगीत, और अनन्य शिल्प और कलाओं की संस्थाओं की स्थापना करनी पड़ती है और उन्हें मंदिरों और मठों से जोड़ना पड़ता है। जिस विश्वगुरु भारत का हम स्मरण करते हैं उसका ये संस्थाएँ ही आधार थीं !!!

सांस्कृतिक संस्थाओं की उपेक्षा , उनको राष्ट्रीय स्तर की पहचान न बनाना , शिल्पी व कलाकारों को संरक्षण न देना , उनको शिष्य निष्पादन के समर्थ न बनाना , ये ही पिछले १५ वर्षीय भाजपा शासन की पहचान रहे हैं। कांग्रेस के उपनिवेश वादी व्यवहार ने कला और संस्कार को ध्वस्त क्यों किया यह तो समझने में आता है, लेकिन
सांस्कृतिक राष्ट्र वाद वाली पार्टी से यह उपेक्षा कैसी हुई यह समझना मुश्किल है।

भूल सुधार करने का क्या संकल्प है, इसके भी मात्र आश्वासन हैं कोई ठोस योजना प्रकाशित नहीं।
अंत में हताश होकर वह ही उक्ति याद करनी पड़ती है :
बोद्धारो मत्सरग्रस्तः
प्रभवः स्मयदूषिता:।
अबोधोपहताश्चन्ये जीर्णमड्ःगे सुभाषितम्॥

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