Shadow

शिक्षा : छात्र हिंसक क्यों हो रहे हैं?

यह विडंबना देश का दुर्भाग्य ही है कि जिस उम्र में छात्रों को एकाग्र होकर पढ़ाई-लिखाई में बेहतर करके अपना भविष्य संवारना चाहिए था, उस उम्र में वे हिंसक गतिविधियों में लिप्त दिख रहे हैं। किशोरों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति हमारे समाज के लिये एक चेतावनी ही है। आए दिन स्कूली छात्रों के खूनी टकराव और छात्रों की जान जाने की खबरें आ रही हैं। जो शिक्षकों और अभिभावकों के लिये गंभीर चिंता की बात है। विचारणीय प्रश्न यह है कि खेलने-खाने की उम्र में छात्रों के व्यवहार में यह आक्रामकता क्यों आ रही है?

इसी संकट की आहट को महसूस करते हुए कुछ राज्य सरकारों के शिक्षा निदेशालयों ने स्कूलों को आदेश दिया है कि विद्यार्थियों के बस्ते की औचक जांच के लिए एक समिति बनायी जाए। जिसका मकसद है कि किसी लड़ाई-झगड़े में छात्रों को नुकसान पहुंचने वाली घातक वस्तुओं की निगरानी करना। ताकि किसी टकराव और संघर्ष की स्थिति में कम से कम किसी छात्र की जिंदगी पर संकट न आए।

इसके पीछे उद्देश्य यही है कि छात्रों के लिए स्कूल परिसरों में सुरक्षित माहौल बनाया जा सके। यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या छात्रों के बस्ते की निगरानी मात्र से इस समस्या का समाधान संभव है? क्या इस उपचार से आक्रामक होती मानसिकता पर अंकुश लग पाएगा? क्या शिक्षक भी इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि हमारे बच्चे गुस्से में क्यों हैं? आखिर वे किन मनःस्थितियों से गुजरकर घातक कदम उठा रहे हैं। निस्संदेह, हमारे वातावरण, टीवी, फिल्मों और अन्य सूचना माध्यमों में ऐसा बहुत कुछ मौजूद है जो उनके व्यवहार में अप्रत्याशित बदलाव ला रहा है। बेलगाम इंटरनेट के घातक प्रभावों से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हाल के दशकों में इंटरनेट में ऐसे तमाम हिंसक वीडियो गेम उपलब्ध हैं जो किशोरों के बालमन पर प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। बच्चे खेल-खेल में कई ऐसे हिंसक वीडियो गेम में रम जाते हैं जहां मारने-काटने के खेल आम बात है। किशोरों की ऐसे ऑनलाइन खेलों की लत लगना अब आम बात हो गई है।

बच्चों का मस्तिष्क एक कोरी स्लेट की तरह होता है। उसे जिस तरह का ज्ञान बाह्य स्रोतों से मिलता है उसकी मनोवृत्ति उसी के अनुरूप ढल जाती है। दरअसल, आज भागदौड़ की जिंदगी में अभिभावकों के पास भी इतना समय नहीं है कि वे बच्चों की चौबीस घंटे निगरानी कर सकें। उनकी धारणा है कि कम से कम बच्चा मोबाइल के साथ उनके करीब तो है। मोबाइल आज एक ऐसा बेलगाम साधन बन गया है जिसमें कौन क्या परोस रहा है और उसका बच्चों पर क्या असर होगा, कोई नहीं कह सकता। वहीं स्कूलों के स्तर पर शिक्षकों की भूमिका पहले जैसी नहीं रही, जो छात्रों के रुझान व सोच को संवारने में गहरी रुचि रखते थे।

हमारे राजनीतिक परिदृश्य में भी जो आक्रामकता बढ़ रही है वह भी नई पीढ़ी को संवेदनहीन बना रही है। आए दिन आरोप-प्रत्यारोप और पराभव की राजनीति बालमन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। उन्हें लगता है कि सामाजिक व राजनीतिक जीवन के नायक कहे जाने वाले लोगों के व्यवहार में ऐसी तल्खी है, तो यह सामान्य जीवन का ही हिस्सा है। विडंबना यह भी है कि नई पीढ़ी के बच्चे मैदानी खेलों और श्रम प्रधान व्यवहार से परहेज करने लगे हैं। जिससे उनके व्यवहार में सहजता-सरलता का भाव लगातार घट रहा है। वहीं समाज में नैतिक मूल्यों का पराभव भी इस संकट का एक पहलू है।

संवेदनहीनता पांव पसार रही है। आधुनिक जीवन शैली के दंश भी इसमें भूमिका निभाते हैं। वहीं खान-पान का सात्विक पक्ष भी धीरे-धीरे नदारद होता जा रहा है। दूषित खानपान व पर्यावरण के प्रदूषण के मानवीय व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभाव का अंतिम निष्कर्ष आना अभी बाकी है लेकिन कहीं न कहीं ये घटक हमारे व्यवहार पर असर तो डालते ही हैं। बहरहाल, नई पीढ़ी के बच्चों के व्यवहार में आ रही आक्रामकता हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। जिसको लेकर शिक्षा मंत्रालय,शिक्षकों व अभिभावकों को साझी जवाबदेही निभाने की जरूरत है क्योंकि ये बच्चे हमारे कल के नागरिक हैं और देश का भविष्य भी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *