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हिजाब : भारत और ईरान में अलग सुर क्यों?*

हिजाब : भारत और ईरान में अलग सुर क्यों?*
_-बलबीर पुंज_

आगामी दिनों में शीर्ष अदालत हिजाब मामले पर निर्णय सुना सकता है। यह सुनवाई कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती देने से जुड़ी है, जिसमें उसने मुस्लिम छात्राओं की स्कूली कक्षाओं के भीतर हिजाब पहनने की अनुमति संबंधित याचिकाओं को निरस्त कर दिया था। अभी विश्व के दो देश— भारत और ईरान, हिजाब को लेकर केंद्रबिंदु में है। अपने देश में ‘वाम-उदारवादी’, मुस्लिम पक्षाकारों का साथ देते हुए हिजाब के समर्थन में मुख्यत: दो तर्क प्रस्तुत कर रहे है। पहला- मुस्लिम छात्राओं को क्या पहनना है— यह ‘चुनने का अधिकार’ उनका है और इसमें शासन-प्रशासन को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। दूसरा- हिजाब ‘आवश्यक इस्लामी प्रथाओं’ में से एक है, इसलिए यह मुस्लिम महिलाओं के लिए बाध्यकारी है और उनके पास इसे पहनने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है।

इस दिशा में जहां ‘वाम-उदारवादियों’ का पहला बिंदु, ऊपरी तौर पर ‘उदार’ दिखता है, वही उनका दूसरा तर्क प्रत्यक्ष रूप से किसी घोषित इस्लामी शासन-व्यवस्था को अनुमोदित करना है। अभी ईरान में क्या हुआ? यहां बीते माह हिजाब संबंधित ‘इस्लामी मानक’ नहीं मानने पर गिरफ्तार 22 वर्षीया महसा अमीनी की पुलिस हिरासत (‘गश्त-ए-इरशाद’) में संदिग्ध मौत हो गई, जिसके बाद से तेहरान सहित शेष ईरान के साथ विश्व के कई नगरों में हजारों-लाख महिलाएं (अधिकांश मुस्लिम) इस्लामी व्यवस्था के खिलाफ हिजाब उताकर फेंकने और अपने बाल काटकर प्रदर्शन करने लगी। चूंकि ईरान में शरीयत लागू है, इसलिए उसका सत्ता-वैचारिक अधिष्ठान हिजाब/बुर्का/नाकाब आदि को महिलाओं के लिए ‘बाध्यकारी’ और उसे ‘आवश्यक मजहबी प्रथा’ बताकर बलपूर्वक हिजाब-विरोधी प्रदर्शन को कुचल रहा है। इस टकराव में अबतक 100 से अधिक प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों की मौत हो चुकी है। एक ईरानी सांसद ने हिजाब का विरोध कर रही मुस्लिम महिलाओं को ‘वेश्या’ तक कह दिया। इन घटनाओं के आलोक में क्या सत्य नहीं कि ईरान में हिजाब को लेकर इस्लामी सरकार और भारत में वाम-उदारवादियों की भाषा एक जैसी है?

क्या हिजाब ‘आवश्यक इस्लामी प्रथाओं’ में से एक है, जैसा कि वाम-उदारवादी बार-बार दोहरा रहे है? यदि ऐसा ही है, तो ईरान में महिलाएं हिजाब को क्यों जला रही हैं? क्यों वे अपने बालों को काट रही है? क्यों वे हिजाब नहीं पहनने के लिए मजहबी व्यवस्था का सामना करने को भी तैयार है? क्या प्रदर्शनकारी महिलाएं मुस्लिम नहीं या वाम-उदारवादी उन महिलाओं को मुस्लिम नहीं मानते?

सामान्यत: भारत में वामपंथी महिला ईकाई विश्व में ऐसे ‘अन्यायों’ को लेकर एकाएक आंदोलित हो जाती है और पैदल-मार्च आदि निकालकर विरोध दर्ज कराती है। क्या ईरान के हालिया मामले को लेकर ऐसा कुछ देखने को मिला? क्या यह दुविधा इसलिए है, क्योंकि उनका कुनबा भारत में मध्यकालीन हिजाब का समर्थन कर रहा है?

ईरान की तुलना में भारत में मुस्लिम महिलाओं के पास विकल्प है कि वे हिजाब/बुर्का/नाकाब पहनने या उसका त्याग करें। यहां का हिजाब विवाद केवल बहुलतावादी शैक्षणिक संस्थानों में परिधान-संहिता की शुचिता को अक्षुण्ण रखने तक सीमित है। दशकों से भारतीय स्कूलों-कॉलेजों में समरूप वर्दी पहनने का नियम है, चाहे छात्र किसी भी पंथ या मजहब से हो।

क्या निर्धारित वर्दी ‘कभी पसंदीदा वस्त्र पहनने के अधिकार’ का मामला हो सकता है?— बिल्कुल भी नहीं। यदि मुस्लिम छात्राओं को कक्षा में हिजाब पहनने की अनुमति मिलती है, तो क्या इसके बाद मुस्लिम छात्र जालीदार टोपी पहनने की अनुमति नहीं मांगेंगे? क्या इस आधार पर अन्य किसी को धोती, माता की चुनरी, चिवार (बौद्ध) पहनने या फिर निवस्त्र नहीं आने के लिए मना कर पाएगा? ऐसी स्थिति में स्कूल/कॉलेज में परिधान-संहिता का क्या अर्थ रह जाएगा? क्या यह विकृति केवल स्कूल-कॉलेजों तक सीमित रहेगी? क्या ‘पसंदीदा परिधान’ पहनने की मांग उन संस्थानों को भी अपने चपेट में नहीं लेगी, जहां भी निर्धारित परिधान-संहिता है— जैसे पुलिस, अधिवक्ता, अग्नि-शामक दल इत्यादि। ऐसे विभागों की एक लंबी सूची है।

यह दिलचस्प है कि जो वाम-उदारवादी स्कूल हिजाब प्रकरण पर कर्नाटक की भाजपा सरकार के फैसले को ‘इस्लामोफोबिया’ बताने में जुटे है, वही कुनबा केरल में सामने आए ऐसे ही दो निर्णयों पर न केवल मौन रहा, अपितु इसके खिलाफ मुस्लिम समाज की ओर से कोई उग्र प्रदर्शन भी नहीं हुआ, जैसे कर्नाटक के मामले में देखने को मिला था। क्या यह दोहरा मापदंड- वाम-उदारवादियों के साथ जिहादी-सेकुलर झुंड की सच्चाई और उनकी मोदी/भाजपा/आरएसएस से विशुद्ध घृणा को सामने नहीं लाता है?

इसी वर्ष जनवरी में केरल की वामपंथी सरकार ने आठवीं कक्षा की मुस्लिम छात्रा के उस अनुरोध को निरस्त कर दिया था, जिसमें उसने राज्य पुलिस से संबंधित ‘स्टूडेंट पुलिस कैडेट’ (एसपीसी) की पोशाक-संहिता को इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप नहीं मानते हुए हिजाब और पूरी बांह का परिधान पहनने की स्वीकृति मांगी थी। तब राज्य के गृह विभाग ने कहा था, “…यह मांग विचारणीय नहीं है… यदि एसपीसी में इस तरह की छूट दी जाती है, तो ऐसी ही मांग अन्य समान बलों में भी की जाएगी, जो पंथनिरपेक्षता को प्रभावित करेगी…।” यही नहीं, 2019 में केरल की मुस्लिम शिक्षण संस्था (एमईएस) अपनी 150 ईकाइयों में चेहरा ढकने वाले सभी परिधानों (हिजाब सहित) पर प्रतिबंध लगा चुकी है।

सच तो यह है कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं को वाम-उदारवादी उसी प्रकार पथभ्रष्ट कर रहे है, जैसे इनके समकक्षों ने ईरान में चार दशक पहले स्थानीय महिलाओं को किया था। वर्ष 1978-79 में शाह पहलवी राजवंश के अंतिम शाह मोहम्मद रजा, जो तत्कालीन ईरान को ‘श्वेत क्रांति’ (इंक़लाब-ए-सफ़ेद) के माध्यम से मध्यकालीन संकीर्ण मानसिकता से मुक्त करके उसे आधुनिक बना रहे थे— उनके शासन को मुल्ला-मौलवियों आदि इस्लामियों ने स्थानीय मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों के समर्थन से उखाड़ फेंका था। तब ईरान के इस घोषित इस्लामीकरण में स्थानीय महिलाओं ने भी अग्रणी भूमिका निभाई थी। यह विडंबना है कि लगभग 44 वर्ष बाद उन्हीं महिलाओं की भावी पीढ़ी, उसी इस्लामी-क्रांति से जनित हिजाब-बाध्यता के खिलाफ सड़कों पर है। इस पृष्ठभूमि में भारतीय मुस्लिम महिलाओं को वाम-उदारवादियों से सचेत हो जाना चाहिए। क्या ऐसा संभव लगता है?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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