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कॉप 28 रहा कितना सफल

कॉप 28 ने इस संदर्भ में वह कर दिखाया जो विगत 30 सालों से करने का स्वप्न देखा जा रहा था। पहली बार जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर बातचीत हुई।

By Avantika Goswami

 Photo: Joel Michael / CSE12jav.net

संयुक्त राष्ट्र के “फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी)”का 28 वां “कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप 28)” सम्मेलन तेल और गैस उत्पादक देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में आयोजित हुआ। यह सम्मेलन एक तनावपूर्ण परिवेश में संपन्न हुआ क्योंकि अपने देश की राष्ट्रीय तेल कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुल्तान अल जबर कॉप 28 के अध्यक्ष की हैसियत से इस सम्मेलन में एक दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रहे थे। ऐसी स्थिति में यूएई और अन्य सदस्य देशों के बीच हितों के टकराव की स्वाभाविक आशंका हर किसी को थी। दूसरी तरफ इसराइल और फिलिस्तीन के बीच हिंसक झड़पों के कारण भी सम्मेलन के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल छाए हुए थे। बहरहाल विषमताओं के बावजूद लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों ने रेगिस्तान में बसे आलीशान दुबई में आयोजित “एक्सपो 2020” वेन्यू में शिरकत की। कइयों की नजर में यह सम्मेलन यह बताने का एक महत्वपूर्ण रूपक भी है कि किस प्रकार कॉप सम्मेलनों ने यूएनएफसीसीसी के केंद्रीय मामलों के परे खुद का विस्तार ग्रीन वाशिंग के छलावे के तौर पर किया है।

सम्मेलन में सभी प्रतिभागियों द्वारा सहमति के आधार पर पहले ही दिन एक नई विषय-सूची को सुगठित एजेंडे के रूप में मान्यता दे दी गई। नई अध्यक्षता ने सम्मेलन के पहले ही दिन अपनी राजनयिक सूझ-बूझ से विकसित देशों को “लॉस एंड डैमेज फंड” के परिचालन के लिए राजी करके सबको अचंभित कर दिया और इसको क्रियान्वित करने के लिए अपनी ओर से अनुदान-आधारित प्रतिबद्धता व्यक्त की। इस कार्यवाही ने हानि और क्षति के बीच अनुदान और समझौते के बाद के चरणों में उपस्थित होने वाली अन्य मांगों के कारण प्रकट होने वाली लेन-देन की स्थितियों को भी सफलतापूर्वक दूर किया। इस सकारात्मकता के साथ सम्मेलन की शुरुआत करना एक महत्वपूर्ण बात थी, दिखावे के लिए ही सही, लेकिन विकसित और विकासशील देशों के बीच एक विश्वास का माहौल पैदा करने की कोशिश हुई। यह जरूरी इसलिए भी था क्योंकि इस कॉप के जिम्मे पेरिस समझौतेके लक्ष्यों के ग्लोबल स्टॉकटेक आकलन के आधार पर सहमतिपूर्वक आगे ले जाने का दारोमदार भी था। इस बातचीत के समानांतर कई देशों ने स्वैच्छिक तौर पर नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता को तिगुना बढ़ाने की प्रतिबद्धता, जलवायु परिवर्तन और लोक स्वास्थ्य के प्रति संकल्प, टिकाऊ कृषि व अन्य मुद्दों पर महत्वपूर्ण घोषणाएं कीं। इनमें कई देशों ने समर्थन दिया तो कई चुप रहे। ऐसे देश चुप रहे जो स्वेच्छा या संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के नियमों या प्रोटोकॉल से बंधे हुए नहीं हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने भी पेरिस समझौते में अपने संकल्पों से परे इन बिंदुओं पर सहमत नहीं होने का निर्णय लिया।

ग्लोबल नॉर्थ और साउथ अक्सर लॉस एंड डैमेज या जलवायु वित्त से संबधित मुद्दों पर बातचीत करते हुए आपसी टकराव से बचते हैं, लेकिन वास्तविकताएं इससे कहीं अधिक जटिल होती हैं। वैश्विक नेताओं द्वारा दिए गए वक्तव्यों से यह भी जाहिर होता है कि विकासशील दुनिया अब इन संवेदनशील मुद्दों पर पहले की तुलना में अधिक मुखर हो गई है। उसके पास समाधान भी है और वह जलवायु संबधी विमर्शों में अमीर और शक्तिशाली देशों के पाखंडपूर्ण आचरण पर भी टिप्पणी करने से नहीं हिचकती है। ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा ने साफ-साफ कहा कि असमानता से लड़े बिना हम जलवायु परिवर्तन से नहीं लड़ सकते हैं। बारबाडोस की प्रधानमन्त्री मिया मोटली ने परिवर्तन के लिए प्रत्यक्ष अनुदानों का आह्वान करते हुए एक रैली का नेतृत्व करते हुए कहा “किसी भी आपदा के पहले हम जो प्रत्येक डॉलर खर्च करते हैं, उसके बदले हम 7 डॉलर का नुकसान होने और कई जानों की क्षति से बच सकते हैं।” इन जटिल सच्चाइयों ने ग्लोबल स्टॉकटेक में जीवाश्म ईंधन पर निर्णायक बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।

कॉप 28 ने इस संदर्भ में वह कर दिखाया जो विगत 30 सालों से करने का स्वप्न देखा जा रहा था। पहली बार जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर बातचीत हुई। अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देश जहां जीवाश्म ईंधन के चरणबद्ध तरीके से समाप्ति की बात कर रहे थे, वहीं पश्चिमी मीडिया ने इतिहास और संदर्भों को दरकिनार कर यह फैलाया कि भारत, चीन और ओपेक जैसी तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं जीवाश्म ईंधन की चरणबद्ध समाप्ति पर अवरोध खड़ा कर रही हैं। विकसित और विकासशील देशों के बीच जीवाश्म ईंधन के चरणबद्ध समाप्ति की भाषा को लेकर कई अफवाहें भी फैलीं।

हमेशा की तरह अमेरिका की तरफ से इस भाषा संबंधी प्रकरण में दिलचस्पी भी कम दिखी। जीवाश्म ईंधन को लेकर जो कदम विकसित देशों द्वारा 30 वर्ष पहले उठाए जाने थे उस पर बहस चलाई जरूर गई लेकिन जैसा कि कॉप की परंपरा रही है, उसने भी विकासशील देशों को “असल दोषी” ठहराने में तनिक भी देरी नहीं की।

अंत में कॉप 28 में यह तय किया गया कि जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध खत्म करने के बजाए ट्रांजिशन किया जाएगा। ट्रांजिशन यानी कम उत्सर्जन वाले जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल किया जाएगा। इस मसौदे की भी व्यापक आलोचना की गई है कि इनमें अनेक कमियां हैं जिनका दुरुपयोग जीवाश्म ईंधन का उत्पादन करने वाली ईकाइयां उत्पादन का विस्तार बढ़ाने के उद्देश्य से कर सकते हैं। जीवाश्म ईंधनों की भूमिका के उल्लेख के विरुद्ध अनेक तर्क हैं। जलवायु परिवर्तन पर पिछले 30 सालों से बहस जारी है और विज्ञान वर्षों से इसके कुप्रभावों के बारे में बातचीत को प्रोत्साहित करता रहा है, इसके बावजूद इसकी हदें आज भी आश्चर्यजनक रूप से हास्यास्पद हैं। बहरहाल जीवाश्म ईंधन को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच शुरू हुई इस बात को ध्यान में रखकर सम्मेलन को मील का पत्थर मानना होगा और इस बात के लिए इसे श्रेय भी दिया जाना होगा कि सालाना होने वाले इस कॉप ने एक पुराने जड़ हो चुके विमर्श को गति दी है।

कॉप 28 के अहम फैसले और देशों की राय

कॉप 28 के पहले दिन 30 नवंबर को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अध्यक्षता ने हानि और क्षति निधि (लॉस एंड डैमेज फंड – एलडीएफ) को चालू करके एक बड़ी जीत हासिल की।

By Avantika Goswami, Tamanna Sengupta, Akshit Sangomla

 Photo: iStock12jav.net

ग्लोबल स्टॉकटेक वर्ष 2015 में पेरिस समझौते के तहत स्थापित किया गया तंत्र था, जिसका काम पेरिस समझौते के बिंदुओं और तक्ष्यों के अमल में लाए जाने की प्रगति की समीक्षा करना है।  इस कॉप में इसका पहला मसौदा 1  दिसंबर, 2023 को आया तब उस पर कई देशों की राय अलग-अलग थीं। इसलिए देशों को आपस में अनौपचारिक चर्चा करनी पड़ी, ताकि मतभेद सुलझाए जाएं और एक व्यापक सुझाव पेश किया जा सके।

5 दिसंबर को आए दूसरे मसौदे में कुछ पैराग्राफ नो-टेक्स्ट यानी बिना-संदर्भ के छोड़े गए थे। इसका मतलब है कि अगर किसी पैराग्राफ पर सहमति नहीं बनती तो उसे पूरी तरह हटा दिया जाएगा। कई महत्वपूर्ण पैराग्राफ जैसे “जीवाश्म ईंधन धीरे-धीरे बंद करने” से जुड़ा पैराग्राफ 35 भी नो-टेक्स्ट विकल्प थे। भारत ने दो टूक कहा कि वह इसे पूरी तरह से हटा देना चाहता है, जैसा कि सऊदी अरब ने “समान विचार के विकासशील देशों” यानी लाइक-माइंडेड डिवेलपिंग कंट्रीज (एलएमडीसी) की ओर से किया। यूरोपीय संघ ने इस पैराग्राफ का स्वागत किया।

तमाम अलग-अलग राय मिलने के बाद, सह-अध्यक्षों ने 8 दिसंबर को एक तीसरा मसौदा दिया, जिसे बातचीत करने वालों के सुझावों के साथ प्रेसीडेंसी को आगे बढ़ाया गया।

11 दिसंबर को प्रेसीडेंसी की तरफ से जारी चौथे मसौदे ने हंगामा खड़ा कर दिया। इसमें जीवाश्म ईंधन को धीरे-धीरे बंद करने को विकल्पों के एक मेनू के तौर पर पेश किया गया, जिसे देश अपने हिसाब से चुन सकते हैं। इसकी छोटे द्वीपसमूह देशों के गठबंधन, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने आलोचना की। पोलिटिको समेत तमाम मीडिया रिपोर्टों ने तुरंत भारत और चीन सहित विकासशील देशों को कमजोर भाषा के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। कई विकसित देशों ने पूरी की पूरी बातचीत के दौरान जीवाश्म ईंधन पैराग्राफ का जिक्र ही नहीं किया (देखें, “दो पाटों के बीच”)।  वहीं, कुछ देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी और कोयले पर मुख्य तौर पर फोकस किया। कॉप सम्मेलन में आखिरी दिन से एक दिन पहले हुआ हंगामा एक रणनीति लगती है, जिसका मकसद ग्लोबल साउथ देशों के पीछे छिपना और अमेरिका जैसे देशों के लिए तेल उत्पादन जारी रखने के अधिकार को बचाना लगता है।

बढ़ते विरोध के बाद कॉप 28 की प्रेसीडेंसी ने चर्चा की और 13 दिसंबर के शुरुआती घंटों में ग्लोबल स्टॉकटेक का फाइनल वर्जन अपलोड किया गया। ये सभी देशों को उत्सर्जन कम करने के वैश्विक प्रयासों में शामिल होने के लिए आह्वान करता है। ये अब जीवाश्म ईंधन कम करने को सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि सुधार के लिए जरूरी कदम मानता है। पहली बार, जीवाश्म ईंधन और उत्सर्जन कम करने में उसकी भूमिका का जिक्र भी किया गया है। लेकिन पूरे टेक्स्ट में सिर्फ कोयला का स्पष्ट उल्लेख है, तेल और गैस का नहीं। पिछले संस्करण में “जीवाश्म ईंधन” के उत्पादन और इस्तेमाल को खत्म करने का ज़ोरदार शब्द था जो पूरी तरह स्पष्ट था। फाइनल वर्जन में जीवाश्म ईंधन के “फेज आउट” (खत्म करने) के बजाय उसकी जगह पर “ट्रांजिशनिंग अवे” शब्द का इस्तेमाल किया गया। यानी जीवाश्म ईंधन को खत्म करने के बजाय रिन्यूएबल एनर्जी बढ़ाने की बात कही गई है जो धीरे-धीरे जीवाश्म ईंधन की जगह लेंगी। आगे के पैराग्राफ में “ट्रांजिशनल फ्यूल्स” की भूमिका का भी जिक्र है, जो प्राकृतिक गैस की ओर इशारा करता है। साथ ही उत्पादन का कोई संदर्भ नहीं होने की वजह से देशों के लिए ईंधन का उत्पादन जारी रखने का रास्ता खुला रहता है।

जी 77, चीन और कम विकसित देशों ने विकासशील देशों की बढ़ती जरूरतों को पहचानने और अनुकूलन वित्त (अडैप्टेशन फाइनेंस) को दोगुना करने को पहला कदम बताने की मांग की थी। हालांकि, मसौदे के पहले चार संस्करणों में यह अडैप्टेशन सेक्शन में था, लेकिन अंतिम संस्करण में इसे फाइनेंस सेक्शन में डाल दिया गया, जो विकसित देशों की पुरानी मांग थी। विकसित देशों का कहना है कि सभी वित्तीय संदर्भों को फाइनेंस सेक्शन में शामिल करना ही समझदारी है। साथ ही साथ, वे हर सेक्शन में क्षमता बढ़ाने के संदर्भों को भी शामिल करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे ऐसे हर सेक्शन में तभी सहज महसूस करते हैं जब ऐसे संदर्भ ग्लोबल नॉर्थ की फाइनेंस जैसी जिम्मेदारी की ओर इशारा न करें। विकसित देशों से वित्त तक पहुंच पर निर्भर एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) उपलब्धियों के विशिष्ट संदर्भ अमेरिका की मांग के बाद हटा दिए गए। फिर भी अधिक रियायती, गैर-ऋण जलवायु वित्त की जरूरत को स्वीकार करने वाला एक पैराग्राफ है, जो ग्लोबल साउथ के लिए महत्वपूर्ण है।

कुल मिलाकर, ग्लोबल स्टॉकटेक में कुछ अच्छे बदलाव देखने को मिले हैं, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी स्पष्ट तौर पर बचे हैं। जीवाश्म ईंधन बदलाव को न्यायसंगत ढंग से लागू करने में सबसे बड़ा सवाल ये है कि विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग समयसीमा क्या हैं? विकास के लिए जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने का अधिकार अभी भी किसके पास है और किसने कार्बन बजट का अपने उचित हिस्से से ज्यादा इस्तेमाल किया है? इन सवालों का जवाब दिए बिना, एक निष्पक्ष और न्यायसंगत ट्रांजिशन को हासिल करना मुश्किल होगा।

बड़ी जीत 

कॉप 28 के पहले दिन 30 नवंबर को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अध्यक्षता ने हानि और क्षति निधि (लॉस एंड डैमेज फंड – एलडीएफ) को चालू करके एक बड़ी जीत हासिल की। देशों ने तमाम विकसित देशों और यहां तक कि यूएई जैसे विकासशील देशों की तरफ से फंड के पूंजीकरण के लिए लगभग 65.59 करोड़ अमेरिकी डॉलर के वित्त पोषण का स्वागत भी किया। पहले दिन एलडीएफ से जुड़े फैसले के पाठ को अपनाना अध्यक्षता के लिए आसान नहीं था क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका 3-4 नवंबर के बीच अबू धाबी में ट्रांजिशनल कमेटी की पांचवी बैठक (टीसी5) में एलडीएफ सिफारिशों के दस्तावेज पर आम सहमति से पीछे हट गया था। उनका मुख्य मुद्दा यह था कि उन्हें दस्तावेज की भाषा से लगा कि सिफारिशों में केवल विकसित देशों को एलडीएफ में भुगतान करने के दायित्व के बारे में कहा गया है।

लॉस एंड डैमेज फंड

ट्रांजिशन कमेटी (टीसी) की स्थापना मिस्र के शर्म अल-शेख में कॉप 27 में अपनाए गए एलडीएफ के डिसीजन टेक्स्ट के जरिए की गई थी, ताकि फंड के शासन, पात्रता, पहुंच, स्रोतों और पैमाने के बारे में विवरण तैयार किया जा सके। विभिन्न वार्ता समूहों के 14 विकासशील देशों के सदस्यों और 10 विकसित देशों के सदस्यों वाली टीसी की मार्च से अक्टूबर के बीच 4 निर्धारित बैठकें हुईं लेकिन आम सहमति नहीं बन पाई। फिर एक पांचवी टीसी बैठक की व्यवस्था करनी पड़ी। मुख्य विवाद अन्य विकसित देशों के समर्थन से विश्व बैंक में वित्तीय मध्यस्थ फंड यानी फाइनेंशियल इंटरमीडियरी फंड (एफआईएफ) के रूप में एलडीएफ की मेजबानी के लिए अमेरिकी प्रस्ताव था। सभी विकासशील देशों को एलडीएफ को विश्व बैंक में रखने पर आपत्ति थी क्योंकि उसका विकासशील देशों को धन देने का अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है, खासकर वित्त तक पहुंच की शर्तों के संदर्भ में। एक और मुद्दा विश्व बैंक के होस्टिंग शुल्क के साथ था जो 17-24 प्रतिशत जितना अधिक हो सकता है। यह वह शुल्क है जो विश्व बैंक एलडीएफ के सचिवालय की मेजबानी के लिए लेगा। वे इस बात से भी चिंतित थे कि संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व बैंक पर कितना नियंत्रण है।

आखिरकार टीसी5 में विकासशील देशों ने एक बड़ा समझौता किया जिसमें 4 साल की अंतरिम अवधि के लिए विश्व बैंक को एलडीएफ की मेजबानी करने दी गई। लेकिन बैंक पर पांच अहम शर्तें लगाईं। पहली शर्त है फंड के बोर्ड को अपने कार्यकारी निदेशक के चयन में पूर्ण स्वायत्तता सुनिश्चित करना और 2015 पेरिस समझौते के पक्षकारों के मार्गदर्शन के आधार पर अपनी पात्रता के मानदंड लागू करना।  वहीं, दूसरी  शर्त रखी गई कि जो देश विश्व बैंक के सदस्य नहीं हैं, उनकी भी फंड तक पहुंच हो। तीसरी शर्त यह रही कि विकासशील देशों के लिए फंड तक सीधी पहुंच, यहां तक कि उप-राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इकाइयों के माध्यम से और समुदायों के लिए छोटे अनुदान के माध्यम से भी पहुंच बने। चौथी शर्त रखी गई कि अगर जरूरत पड़े तब विश्व बैंक की नीतियों के ऊपर एलडीएफ अपनी नीति को तरजीह देगा। पांचवीं शर्त है कि अगर विश्व बैंक चार साल में किसी भी बिंदु पर या चार साल बाद समीक्षा के बाद इन शर्तों से सहमत नहीं हुआ या उन्हें पूरा नहीं करता है तो एलडीएफ के सचिवालय को स्थानांतरित कर दिया जाएगा और उसे संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन के तहत स्वतंत्र बना दिया जाएगा। लेकिन कई विशेषज्ञों को लगता है कि कहना तो आसान है, करना मुश्किल है।

एक और विवाद सभी विकासशील देशों की एलडीएफ तक पहुंच की पात्रता के आसपास था। फ्रांस जैसे कई विकसित देशों ने प्रस्ताव दिया था कि फंड को अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों तक सीमित किया जाना चाहिए, लेकिन अंत में सभी विकासशील देशों को फंड तक पहुंच के लिए पात्र बनाया गया।

कई विशेषज्ञों का मानना है कि एलडीएफ का वर्तमान फंडिंग कहीं भी उन जरूरतमंद विकासशील देशों की जरूरतों के आस-पास नहीं है, जिन्हें हर साल नुकसान और क्षति का सामना करना पड़ता है। कुछ अनुमानों के अनुसार, यह राशि 400 अरब अमेरिकी डॉलर तक हो सकती है। फंड में और अधिक धन की आवश्यकता है, जबकि अमेरिका जैसे कुछ विकसित देशों का योगदान बहुत ही कम है। एलडीएफ में अमेरिका का योगदान सिर्फ 1.75 करोड़ डॉलर है।

प्रतिबद्धता की जगह प्रयास

दुबई में हुए कॉप 28 के दौरान जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए वैश्विक लक्ष्य (जीजीए) के फ्रेमवर्क को अपनाया गया। यह लक्ष्य 2015 के पेरिस समझौते के तहत तय किया गया था ताकि सभी देश जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की प्रगति का आकलन कर सकें। इस सम्मेलन में जीजीए फ्रेमवर्क को मंजूर किया ही जाना था। विकासशील देशों के कुछ समूहों, जैसे अफ्रीकी वार्ताकार समूह (एजीएन) के लिए जीजीए पर एक मजबूत परिणाम हर हाल में जरूरी था। एजीएन अफ्रीका के सभी 54 देशों का प्रतिनिधित्व करता है।  कॉप में यह मंजूर किया गया कि जीजीए के बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी देश मिलकर काम करेंगे। साथ ही जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन से जुड़े विषयगत लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करने का प्रयास होगा। कॉप के मसौदे में अनुकूलन फाइनेंस अंतराल को कम करने पर भाषा को हल्का करते हुए “प्रतिबद्ध” की जगह “प्रयास” लिख दिया गया। विषयगत लक्ष्यों को प्राप्त करने की समय सीमा जो पहले हटा दी गई थी, उसे भी शामिल कर लिया गया और 2030 की समयसीमा तय कर दी गई। वहीं, यह तय हुआ कि अनुकूलन के लिए उठाए जाने वाले कदमों का एक क्रम जैसे जोखिम आंकलन, योजना बनाना, क्रियान्वयन और निगरानी पर काम होगा। अनुकूलन फाइनेंस गैप कम करने की कोशिश होगी। यानी विकसित देश विकासशील देशों को उतना पैसा दें ताकि वे जलवायु परिवर्तन से बेहतर ढंग से निपट सकें। इसके अलावा स्थानीय समुदायों और उनके ज्ञान का उपयोग किया जाएगा। जीजीए के तहत यह नहीं तय हुआ कि कितना पैसा और क्या संसाधन चाहिए। विकसित देशों को कितना पैसा देना चाहिए, इस पर सहमति नहीं हुई। उत्तरदायित्वों और संबंधित क्षमताओं यानी डिफरेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटीज एंड रिस्पेक्टिव कैपैबिलिटीज (सीबीडीआर-आरसी) पर भी बात नहीं बनी।

 यहां जानिए किस देश समूह ने जीवाश्म ईंधन को लेकर क्या कहा  

एलएमडीसी (समान विचार वाले विकासशील देश): पैराग्राफ 35 पर अपनी स्थिति समझाने का झंझट नहीं लेंगे, यह तो पहले ही साफ हो चुका है।

एजीएन (अफ्रीका समूह)- जीवाश्म ईंधन पर इस्तेमाल की गई भाषा में ऐतिहासिक बोझ पर विचार किया जाना चाहिए।

एआईएलसी (लैटिन अमेरिका और कैरेबियन देश)- जीवाश्म ईंधन के न्यायपूर्ण और समान रूप से बंद करने की प्रतिबद्धता चाहते हैं।

ईयू (यूरोपीय संघ) – जीवाश्म ईंधन को धीरे-धीरे कम करने/बंद करने के जिक्र का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि टेक्स्ट में पहले से मौजूद कोयला ऊर्जा और प्रभावहीन सब्सिडी पर ऐसी ही भाषा नहीं हो सकती।

कनाडा-  कोयला बंद करने पर बहुत ज्यादा जोर दिया।

भारत – पूरे पैराग्राफ 35 को  “नो टेक्स्ट” विकल्प में डालने यानी पूरी तरह से हटाने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि “नीति न बताने” के निर्देश का सम्मान किया जाए।

चीन – पैराग्राफ 35 को हटाने के लिए कहा।

इराक- जीवाश्म ईंधन और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को बंद करना या कम करना कन्वेंशन के विपरीत है।

पाकिस्तान- कोयला और प्रभावहीन सब्सिडी बंद करने का ज़िक्र कॉप के अनुरूप नहीं है। उन्होंने सहमत भाषा से तनिक भी आगे न बढ़ने की गुजारिश की।

रूस- जीवाश्म ईंधन को बंद करने का उन देशों पर पड़ने वाले असर को प्रमुखता से बताने को कहा जो जीवाश्म ईंधन से कमाई करते हैं

 कॉप 28 में उत्सर्जन को खत्म करने के लिए क्या बनी रणनीति, यहां जानिए

अपने जीवनकाल के पहले 20 वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड से 80 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन इस बार कॉप-28 सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा रहा। 

By Avantika Goswami, Rohini K Murthy

 फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स 12jav.net

शर्म अल-शेख मिटिगेशन एंबिशन वर्क एंड इंप्लीमेंटेशन वर्क प्रोग्राम (एमडब्ल्यूपी) समझौते की बातचीत की शुरुआत 1 दिसंबर को काॅप 28 के सम्मेलन में हुई। इस कार्यक्रम को मूल रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका ने देशों को अपने जलवायु कार्यक्रमों में राहत संबंधी महत्वकांक्षाओं को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से काॅप 26 में प्रस्तावित किया था ताकि 1.5 सेल्सियस की ग्लोबल वार्मिंग की सीमारेखा के भीतर रहने के जलवायु योजना का अनुपालन किया जा सके। एमडब्ल्यूपी पर यह सीमारेखा विकसित देशों ने लागू की है जिसने आरंभ में यह सवाल खड़ा किया था कि उनकी भूमिका ग्लोबल स्टॉकटेक से भिन्न कैसे है। यह वस्तुतः महत्वाकांक्षी व्यवस्था है। जून 2023 को बॉन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र की अर्द्धवार्षिक जलवायु सम्मेलन एमडब्ल्यूपी पर बातचीत को स्थगित करना पड़ा था क्योंकि और अधिक शमन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए विकासशील देशों ने वित्तीय समर्थन की मांग की थी जिसका ब्यौरा पारस्परिक रूप से सहमत विकासशील देशों के समूह के प्रस्ताव में दिया गया था। बोन और दुबई में हुई बातचीत के बीच एमडब्ल्यूपी के सह-अध्यक्षों ने शमन योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए दो कार्यक्रम आयोजित किए। एक “ग्लोबल डायलाॅग एंड इन्वेस्टमेंट फोकस्ड इवेंट” जून और फिर अक्टूबर 2023 में आयोजित हुआ जिनमें संबद्ध विषयों के विशेषज्ञ और देश के प्रतिनिधियों ने ऊर्जा संक्रमण को बढ़ाने के मसले पर एक साथ विचार विमर्श किया। इस प्रक्रिया के सारांश को दुबई में सह-अध्यक्षों द्वारा एक प्रतिवेदन में प्रस्तुत किया गया। इसमें सभी नवीकरणीय ऊर्जा की निविष्टि, कार्बन अवशोषण और वित्त-संबंधी विषयों का उल्लेख शामिल था। जून में आयोजित सेकंड ग्लोबल डायलॉग परिवहन पर केंद्रित था। प्रतिभागियों ने परिवहन व्यवस्थाओं की ओर ऊर्जा संक्रमण को अग्रसारित करने के अवसरों और चुनौतियों के बारे में विमर्श किया जो मुख्यतः गैर-मोटर चालित परिवहन माध्यमों, ऊर्जा-दक्षता, वाहनों के विद्युतीकरण और निम्न-कार्बन ईंधनों पर केंद्रित था।

लेकिन दुबई में छोटे कार्यविधिक तथ्यों के ठोस बातों की अनदेखी की गई। विकसित देशों ने जरूरी विषयों और पेरिस समझौते में तय 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के प्रति एनडीसी के समर्थन की आवश्यकता पर बातचीत आरंभ करने में अपनी रुचि व्यक्त की। विकसित देशों ने ऊर्जा संक्रमण के लिए वित्त प्राप्त करने के मार्ग में आने वाले अवरोधों के बारे में बाताया। भारत ने इस बात पर जोर दिया कि एमडब्ल्यूपी को गैर अनुदेशात्मक और गैर दंडात्मक होना चाहिए और नए लक्ष्यों को निर्धारित नहीं करना चाहिए। मिस्र सहित अनेक देशों ने ग्लोबल स्टॉकटेक की प्रक्रियाओं की नकल से बचने की आवश्यकता पर बल दिया।

मसौदे पर अंतिम सहमति तब बनी, जब 13 दिसंबर को भूमि पर लगे करों को घटा दिया गया। यह मसौदा ग्लोबल डायलॉग और सह-अध्यक्षों द्वारा प्रस्तुत सारांश प्रतिवेदन पर भी सहमति जताता है और 2024 के ग्लोबल डायलॉग पर विमर्श-योग्य विषयों पर निवेदनों और क्षेत्रीय जलवायु सप्ताहों को समझने के लिए भौगोलिक बाधाओं से संबंधित पूरक विमर्शों को आमंत्रित करता है। दुबई में तथ्य-विमर्श के क्रम में एमडब्ल्यूपी की असफलता के दो संभावित कारण हैं – पहला कारण जीएसटी के पूर्वानुमान और सहमति के बिंदुओं से अधिक प्राप्त करने के प्रति एक अनिच्छा है। दूसरा कारण शमन की जिम्मेदारी के संदर्भ में पार्टियों के बीच अविश्वास का वातावरण है।

एमडब्ल्यूपी को आकार देने वाली राजनीतिक अंतर्धाराएं इस बहस को गहरे रूप में प्रभावित करती हैं। यह कहना कठिन है कि अमेरिका द्वारा काॅप 26 में पेश किया गया मूल प्रस्ताव भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य में अच्छे उद्देश्य के साथ लाया गया था या विकसित देशों के वास्तविक प्रदूषक होने के बावजूद उसकी नीयत विकासशील देशों के कंधों पर भी बराबर की जिम्मेदारी डाल देने की थी। विकासशील देशों ने विगत सालों में यह बात लगातार कही है कि जलवायु पर विमर्श उनकी प्राथमिकताओं -मसलन अनुकूलन, तथा हानि और क्षति की जगह शमन पर अत्यधिक केंद्रित है। पेरिस समझौते ने महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व के अनुसार खुद ही विभेदित उत्तरदायित्व-बंटवारे के विचार को कमजोर करने और परिणामस्वरूप सभी देशों के कंधों पर एनडीसी का एक बराबर बोझ रखने का काम किया। यह इस वस्तुस्थिति को दर्शाता है कि क्यों विकासशील देश इसकी पुनरावृति करते हैं कि एमडब्लूपी क्यों गैर अनुदेशात्मक होना चाहिए, और एनडीसी में पहले से निर्धारित लक्ष्यों से पृथक उनपर नए लक्ष्य क्यों नहीं थोपे जाने चाहिए। बल्कि, जब कभी विकासशील देश जीवाश्म ईंधन जैसे मुद्दों पर विभेदित समयरेखा और वित्त की मांग रखते हैं, तब उन्हें “ब्लॉकर्स ऑफ एम्बिशन” कह कर बदनाम किया जाता है, जैसा कि ग्लोबल स्टॉकटेक के क्रियाकलापों में देखा गया है।

विश्वास का यह अभाव विकासशील देशों में एक अनिच्छा उत्पन्न करता है जिसके कारण वे और अधिक शमन की महत्वाकांक्षा में फंस जाते हैं और एमडब्लूपी की प्रगति में रोड़े अटकाते हैं। इस प्रक्रिया के सह-अध्यक्षों को इस मुद्दे को 2024 में निपटाना होगा ताकि एमडब्लूपी को एक रचनात्मक जगह बनाया जा सके जहां ऊर्जा संक्रमण के अवरोधों और अवसरों पर बात-विमर्श हो सके, और सभी देश मिलजुल कर समाधान और समर्थन पर काम कर सकें। अनुकूलन को लेकर इस कॉप में परिणाम यह रहा कि एक प्रक्रियात्मक निर्णय का मसौदा बने जो पार्टियों तथा अन्य समूहों द्वारा उन विषयों पर निवेदन आमंत्रित करता है जिस पर अगले वर्ष के ग्लोबल डायलॉग पर बातचीत हो सके। वहीं, इसमें कमी यह रही कि एनर्जी ट्रांजिशन और वित्तीय तथा तकनीकी आवश्यकताओं के मार्ग के अवरोधों और अवसरों पर ठोस बातचीत हो जिसकी आवश्यकता विकासशील देशों को है।

मीथेन

अपने जीवनकाल के पहले 20 वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड से 80 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन इस बार कॉप-28 सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा रहा। इससे पहले ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) में देशों से 2030 तक मीथेन सहित गैर-कॉर्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जन में कमी लाने का आह्वान किया गया था। कुछ देश यह चाहते थे कि जीएसटी के मसौदे में मीथेन उत्सर्जन में कमी के लिए आंकड़ों में एक निर्धारित लक्ष्य दिया जाए। हालांकि, ऐसा नहीं हो सका। 

 जीएसटी के तहत अगस्त 2023 में प्रसारित एक अनौपचारिक मसौदे में पार्टियों से 2030 तक वैश्विक स्तर पर मीथेन उत्सर्जन को कम से कम 30 प्रतिशत और 2035 तक 40 प्रतिशत तक कम करने का आह्वान किया गया। वैश्विक जलवायु विज्ञान और नीति संस्थान क्लाइमेट एंड एनर्जी एनालिस्ट एट क्लाइमेट एनालिटिक्स के जलवायु और ऊर्जा विश्लेषक नील ग्रांट डाउन टू अर्थ  को बताते हैं कि “यह अफसोस की बात है कि दुबई में दो सप्ताह तक चली बातचीत में यह हासिल नहीं हो सका। हालांकि इस तथ्य को स्वीकार्यता देना कि जीएसटी के मसौदे में मीथेन का उल्लेख किया गया था, यह इस बात का संकेत प्रदान करता है कि देश मीथेन उत्सर्जन में कटौती को मह्त्वपूर्ण करार दे रहे हैं।”

 मीथेन उत्सर्जन में कटौती की तरफ किया गया इशारा कॉप 27 के निर्णयों से भी एक कदम आगे है, जिसने देशों को 2030 तक मीथेन सहित गैर-कार्बन डाइऑक्साइड ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए आगे की कार्रवाई पर विचार करने के लिए आमंत्रित किया है।

 मीथेन एक तिहाई ताप के लिए जिम्मेदार है और इसका जीवनकाल भी छोटा होता है, जिससे यह ग्लोबल वार्मिंग को धीमा करने की एक आकर्षक रणनीति बन जाती है। दरअसल मीथेन सौ या उससे भी अधिक वर्षों तक वातावरण में बने रहने वाले सीओटू की तुलना में महज 7 से 12 वर्षों तक वातावरण में रहता है। मीथेन उत्सर्जन बढ़ रहा है। चार दशक पहले वैश्विक निगरानी शुरू होने के बाद से 2021 में मीथेन उत्सर्जन में सबसे बड़ी वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है। यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के अनुसार, 1.5 डिग्री सेल्सियस को पहुंच के भीतर रखने के लिए जीवाश्म ईंधन, अपशिष्ट और कृषि से वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 2020 उत्सर्जन के सापेक्ष 2030 तक लगभग 60 प्रतिशत, 30-35 प्रतिशत और 20-25 प्रतिशत कम किया जाना चाहिए।

 विडंबना यह है कि जीएसटी का एक अन्य पहलू मीथेन उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों को कमजोर करता है। इसमें कहा गया है कि देशों ने माना है कि  ट्रांजिशन फ्यूल यानी नैचुरल गैस एनर्जी ट्रांजिशन को सुविधाजनक बनाने में भूमिका निभा सकते हैं।

 ट्रांजिशन फ्यूल का मतलब है कि पूरी तरह से नवीकरणीय या गैर जीवाश्म ईंधन पर आने से पहले बीच के स्तर में ऐसे ईंधन का इस्तेमाल करना जो कम उत्सर्जन पैदा करता है। नैचुरल गैस जीवाश्म ईंधन ही है और जिसकी मुख्य घटक मीथेन है लेकिन यह अन्य जीवाश्म ईंधन के मुकाबले कम उत्सर्जन करता है इसलिए इसका इस्तेमाल ट्रांजिशन फ्यूल की तरह होगा। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के मुताबिक 2022 में नैचुरल गैस के जरिए 36.7 मिलियन टन मीथेन उत्सर्जन हुआ था जो कि ऊर्जा क्षेत्र में कुल मीथेन उत्सर्जन में 27.5 फीसदी की हिस्सेदारी करता है। 

 जीएसटी लागू होने से पहले ही मीथेन पर चर्चा चल रही थी। 4 दिसंबर, 2023 को वार्ता के पहले सप्ताह में कॉप 28 प्रेसीडेंसी ने एक वैश्विक मंत्रिस्तरीय मीथेन प्रतिज्ञा की मेजबानी की, जहां देशों और निगमों ने कई प्रतिज्ञाएं कीं।

 संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2024 से 2038 तक अनुमानित 58 मिलियन टन मीथेन उत्सर्जन को रोकने के लिए लागत प्रभावी और नवीन प्रौद्योगिकियों का उपयोग करने की अपनी योजना की घोषणा की। यह 1.5 बिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर का प्रतिनिधित्व करता है जो कि 2021 में बिजली क्षेत्र द्वारा उत्सर्जित कुल कॉर्बन डाईआक्साइड के बराबर है।

 कनाडा ने 2030 तक तेल और गैस के शोषण और उत्पादन से मीथेन उत्सर्जन को 2012 के स्तर से कम से कम 75 प्रतिशत कम करने के लिए अपने मसौदा नियमों की घोषणा की। कॉप 28 प्रेसीडेंसी ने 50 तेल और गैस कंपनियों द्वारा हस्ताक्षरित तेल और गैस डीकार्बोनाइजेशन योजना लॉन्च की। इसके तहत वे 2050 तक या उससे पहले शुद्ध शून्य संचालन और 2030 तक लगभग शून्य मीथेन उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए प्रतिबद्ध हैं।  कृषि क्षेत्र में काम करने वाली छह वैश्विक खाद्य कंपनियों – बेल ग्रुप, डैनोन, जनरल मिल्स, क्राफ्ट हेंज, लैक्टालिस यूएसए और नेस्ले ने कॉप-28 में डेयरी मीथेन एक्शन एलायंस लॉन्च किया।

 इस समूह ने 2024 के अंत तक एक व्यापक मीथेन कार्य योजना लागू करते हुए अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं से मीथेन उत्सर्जन का ब्यौरा देने के लिए प्रतिबद्धता जताई है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में लोअरिंग ऑर्गेनिक वेस्ट मीथेन (एलओडब्ल्यू-मीथेन) पहल का भी शुभारंभ हुआ, जिसका उद्देश्य है 2030 से पहले कम से कम 1 मिलियन टन वार्षिक अपशिष्ट क्षेत्र से पैदा होने वाली मीथेन कटौती करें।

संशय

हालिया प्रतिज्ञाएं और घोषणाएं संशयपूर्ण हैं क्योंकि पुरानी प्रतिज्ञाओं ने अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड नहीं दिखाया है। सरकारी जलवायु कार्रवाई पर नजर रखने वाले एक स्वतंत्र वैज्ञानिक मूल्यांकन क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर द्वारा कॉप 28 प्रतिज्ञाओं के प्रभाव पर एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कॉप 28 से पहले घोषित ऐसी लगभग 500 पहलों में से केवल 20 प्रतिशत ने सार्थक परिणाम दिए हैं। यह आगे अनुमान लगाता है कि तेल और गैस डीकार्बोनाइजेशन से उत्सर्जन में कटौती नगण्य होने की संभावना है। यदि यह सौदा सभी सरकारों द्वारा अपनाया जाता है, तो यह 2030 में उत्सर्जन को 2 गीगाटन कॉर्बन डाईऑक्साइड तक कम कर सकता है, जिसमें से 1.7 गीगाटन कॉर्बनडाई ऑक्साइड का हिस्सा   मीथेन का होगा।

कॉप 28 में जलवायु वित्त का क्या हुआ, कौन से फैसले 2024 के लिए टले

एनसीक्यूजी (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल) के तहत क्लाइमेट फाइनेंस का नया लक्ष्य 2024 तक तय होना है और इसके अगले साल से शुरू होने की उम्मीद है। 

By Rohini K Murthy

 Photo: @ClimateEnvoy / X (formerly Twitter) 12jav.net

दुबई में हुए जलवायु परिवर्तन पर 28वें कॉन्फ्रेंस (कॉप 28) का परिणाम क्या रहा, किन मुद्दों पर वार्ताएं हुई। इस पर डाउन टू अर्थ ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जिसे पांच भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है। अब तक आपने पढ़ा, भाग 1 : जानिए यहां कॉप 28 रहा कितना सफलभाग 2 : यहां जानिए कॉप 28 के अहम फैसले और देशों की राय , भाग 3 : कॉप 28 में उत्सर्जन को खत्म करने के लिए क्या बनी रणनीति, यहां जानिए । आज पढ़ें चौथी कड़ी – 

दुबई में हुए जलवायु परिवर्तन पर 28वें कॉन्फ्रेंस (कॉप 28) में क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला। यह हाल तब रहा जब धनी देश लगातार क्लाइमेट फाइनेंस की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में नाकाम रहे। उनका वादा था कि 2020 से हर साल विकासशील देशों को क्लाइमेट एक्शन के लिए 100 अरब डॉलर देंगे, लेकिन 2009 में कॉप 15 में किए गए इस लक्ष्य को किसी भी साल पूरा नहीं किया गया। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार, 2021 में विकसित देशों की तरफ से कुल क्लाइमेट फाइनेंस 89.6 अरब डॉलर था।

क्लाइमेट फाइनेंस को आसान शब्दों में कहें तो यह अधिक वित्तीय संसाधनों वाले देशों से ऐसे देशों के लिए वित्तीय सहायता है, जिनके पास कम वित्तीय संसाधन हैं और जो पर्यावरण के लिहाज से अधिक असुरक्षित हैं। इस मदद यानी क्लाइमेट फाइनेंस का इस्तेमाल विकासशील देश क्लाइमेट चेंज के नकारात्मक असर को कम करने या अनुकूलन के लिए करते हैं।

क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 100 अरब डॉलर का लक्ष्य विकासशील देशों की जरूरतों पर आधारित नहीं था। क्लाइमेट फाइनेंस पर स्वतंत्र उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ समूह ने अनुमान लगाया है कि चीन को छोड़कर उभरते बाजारों और विकासशील देशों को केवल ऊर्जा परिवर्तन, अनुकूलन और लचीलेपन, नुकसान और क्षति और प्रकृति के संरक्षण और बहाली के लिए 2030 तक सालाना 2.4 ट्रिलियन डॉलर यानी 2,40,000 करोड़ डॉलर निवेश की जरूरत है। इस संदर्भ में वार्षिक जलवायु शिखर सम्मेलन में विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं को दर्शाने के लिए क्लाइमेट फाइनेंस पर एक नए लक्ष्य – न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) यानी नए सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य पर बातचीत की जा रही है।

यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डिवेलपमेंट (यूएनसीटीएडी)की तरफ से कॉप 28 में जारी एक रिपोर्ट में गणना की गई थी कि क्लाइमेट एक्शन को सपोर्ट देने के लिए नए वित्त लक्ष्य के तहत 2025 में विकासशील देशों को 500 अरब डॉलर की फंडिंग होनी चाहिए।  इसे 2030 तक बढ़ाकर 1.55 ट्रिलियन (1,55,000 करोड़) डॉलर  करना चाहिए।

थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क (टीडब्ल्यूएन) के कार्यक्रमों की प्रमुख मीना रमन ने रिपोर्ट के लॉन्च पर कहा कि विकसित देश इस लक्ष्य की राशि के बारे में कोई बात नहीं करना चाहते हैं। उनकी अनिच्छा जाहिर है। उनका कहना है कि यह एक  विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है।  

कॉप 28 के कमजोर परिणाम

एनसीक्यूजी (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल) के तहत क्लाइमेट फाइनेंस का नया लक्ष्य 2024 तक तय होना है और इसके अगले साल से शुरू होने की उम्मीद है। एनसीक्यूजी पर बातचीत के पहले दिन विकसित और विकासशील देशों के समूह ‘महत्वपूर्ण तत्वों’ पर चर्चा करना चाहते थे। इनमें शामिल थी समय सीमा जिसका विषय था क्या ये लक्ष्य 2035 तक चलेगा या उससे आगे? दूसरा विषय था संरचना और तीसरा विषय था पारदर्शिता और लक्ष्य का दायरा। ये सब 2024 में होने वाले तय काम के अलावा अतिरिक्त चर्चा के विषय थे।

हालांकि, दूसरे दिन तक कई देशों के रुख बदल गए और पहले हफ्ते के अंत तक बातचीत अनौपचारिक रूप में चलने लगी। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) पोलैंड के वरिष्ठ जलवायु नीति विशेषज्ञ मार्चिन कोवाल्चुक बताते हैं “दूसरे हफ्ते में, वर्क प्रोग्राम पर एक साफ-सुथरा दस्तावेज तैयार किया गया, लेकिन महत्वपूर्ण तत्वों पर गतिरोध बना रहा।”

 दूसरे हफ्ते में ही यूरोपीय संघ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्लाइमेट एक्शन के लिए धन जुटाने में सिर्फ विकसित देशों के बजाय दुनिया भर के देशों को शामिल करने का जिक्र किया। कोवाल्चुक बताते हैं कि यह एक विवादास्पद मुद्दा है और इस पर कॉप 29 में चर्चा होगी।

कॉप 28 में क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच कई मुद्दों पर तकरार देखी गई। एक अहम मुद्दा था पेरिस समझौते का आर्टिकल 2.1सी, जो कम कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए वित्तीय सहायता को जोड़ने की बात करता है।

विकासशील देशों ने अपने इस डर का इजहार किया कि विकसित देश क्लाइमेट फाइनेंस के साथ शर्तें जोड़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत ने समान विचार के विकासशील देशों (एलएमडीसी) की ओर से कहा कि विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों पर जीवाश्म ईंधन और दूसरी गतिविधियों से दूर हटने का दबाव गरीबी कम करने में बाधा डालेगा। उनका कहना है कि यह पेरिस समझौते के अनुरूप नहीं है।

वहीं, विकसित देश चाहते हैं कि सहायता से विकास भी पर्यावरण अनुकूल हो। “आर्टिकल 2.1सी”  पर गतिरोध बना रहा। क्लाइमेट चेंज पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के विशेष दूत सबर चौधरी ने एक प्रेस ब्रीफिंग में डाउन टू अर्थ को बताया, “आर्टिकल 2.1सी” पर भविष्य की बैठकों में चर्चा होगी।’ 

कॉप 28 के आखिर में एक ही मुद्दे पर सब देश सहमत हुए कि जलवायु वित्त लक्ष्य एनसीक्यूजी तय करने की बात अब तकनीकी चर्चा से हटकर समझौते की बातचीत की तरफ ले जाई जाए। इसके लिए शुरुआती 205 पैराग्राफ वाले दस्तावेज को छोटा करके केवल 26 पैराग्राफ और 4 पेज का बनाया गया है। हालांकि, ऐसा करने से लक्ष्य कम ठोस हो गया है और सिर्फ अगले साल तक बातचीत शुरू करने की बात कही गई है। इस तरह देशों ने एक बड़ा मौका गंवा दिया। वे लक्ष्य के असहमतियों को सुलझाने का काम आगे बढ़ा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विवादित मुद्दे टलते गए।

एनसीक्यूजी पर क्या तय हुआ?

  • वित्त लक्ष्य (एनसीक्यूजी) तय करने के लिए 2024 में कई बैठकें होंगी, तकनीकी चर्चाओं से वार्ता की तरफ कदम बढ़ाएंगे।
  • एनसीक्यूजी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा अध्यक्ष जिम्मेदार रहेंगे।
  • मंत्रियों के बीच उच्च स्तरीय बातचीत के जरिए कारगर राजनीतिक वार्ता सुनिश्चित की जाएगी। इससे राजनीतिक स्तर पर भी मजबूत भागीदारी होगी।
  • सभी देश 31 जनवरी 2024 तक लक्ष्य को लेकर अपना-अपना नजरिया बताएंगे।

कुछ अहम मुद्दे जो अगले साल तक टल गए

  • विकसित और विकासशील देशों के बीच कई बिंदुओं पर असहमतियां रहीं।
  • विकासशील देश चाहते थे कि नुकसान और क्षति के लिए अलग से फंड हो, विकसित देशों ने विरोध किया। विकासशील देश चाहते थे कि क्लाइमेट फाइनेंस के एक हिस्से का इस्तेमाल उन नुकसानों की भरपाई में हो जो पहले ही हो चुके हैं, लेकिन विकसित देशों ने विरोध किया।
  • विकासशील देश चाहते थे कि क्लाइमेट फाइनेंस सालाना 100 अरब डॉलर से कहीं ज्यादा हो, विकसित देशों ने नहीं माना।
  • चीन, भारत और समान विचार के विकासशील देश पेरिस समझौते के एक हिस्से (आर्टिकल 2.1सी) का जिक्र निकालना चाहते थे, क्योंकि उन्हें डर है कि इसका मतलब कम पैसा मिलेगा। विकसित देश चाहते हैं कि विकास पर्यावरण अनुकूल हो। अनुच्छेद 2.1सी में कम उत्सर्जन वाला विकास बताया गया है।
  • विकासशील देश चाहते थे कि अनुदान के रूप में या रियायती शर्तों पर फाइनेंस के रूप में फंड मिले, विकसित देशों ने कहा कि कई तरह के फंडिंग तरीके हो सकते हैं।
  • कब तक का लक्ष्य रखा जाए? लक्ष्य कैसा हो? कैसे पता लगेगा कि सफलता हुई? इन सवालों पर 2024 में चर्चा होगी।

वित्तीय व्यवस्था में बदलाव

कॉप 28 में एक बड़ी बात समझ में आई कि आज की वैश्विक आर्थिक व्यवस्था जलवायु संकट को सुलझाने के लिए तैयार नहीं है। वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की मुख्य तौर पर बुनियाद ब्रेटन वुड्स इंस्टिट्यूशंस हैं (इसमें आईएमएफ और विश्व बैंक शामिल हैं जिनकी स्थापना 1944 में हुई थी)। उस समय ग्लोबल साउथ के कई देश आजाद भी नहीं हुए थे। एक स्वतंत्र पब्लिक पॉलिसी थिंकटैंक ग्लोबल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल प्रॉस्पिरिटी से जुड़े फधेल कबूब बताते हैं “ये व्यवस्था उपनिवेशों के लूटमार के लिए बनी थी, जलवायु या विकास के लिए नहीं।”

कर्ज, मंहगे लोन और बैंक की नीतियों के चलते गरीब देश क्लाइमेट एक्शन में पिछड़ रहे हैं। वो मांग कर रहे हैं कि उन्हें सही मदद मिले, तभी वो ज्यादा से ज्यादा कदम उठा सकते हैं। इसी बात को जून 2023 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में भी कहा गया था।

कॉप 28 में ऐसी चर्चा भी हुई कि क्या विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट एक्शन के खातिर नया फंड बनाया जाए। कुछ देश चाहते हैं कि ये अनुदान के रूप में और आसान शर्तों पर दिया जाए। हालांकि, बड़ी जरूरत ये है कि पूरी वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में फेरबदल हो, नहीं तो जलवायु संकट से निपटना मुश्किल होगा। इसके लिए अलग-अलग देशों ने भी कदम उठाए हैं, जैसे कि यूएई ने क्लाइमेट फाइनेंस के लिए नए तरीके सुझाए हैं। कॉप 28 में इस पर खूब चर्चा हुई और यह उम्मीद की गई है कि आने वाले समय में और ठोस कदम उठाए जाएंगे।

कार्बन मार्केट

संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप 28) के दौरान दुबई में दो हफ्ते चले तनावपूर्ण माहौल के बाद सभी 197 देशों के बीच पेरिस समझौते के आर्टिकल 6 पर सहमति नहीं बन पाने से गतिरोध की स्थिति बन गई है। यह आर्टिकल देशों को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने या हटाने वाले प्रोजेक्ट्स से पैदा हुए कार्बन क्रेडिट के व्यापार करने की अनुमति देता है, जिससे वे अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के जलवायु लक्ष्यों को पूरा कर सकते हैं। एक कार्बन क्रेडिट वायुमंडल से कम या हटाए गए 1 टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर होता है और मेजबान देश इसे किसी खरीदार को बेच सकता है। विश्व बैंक के अनुसार 66 फीसदी से ज्यादा देश अपने एनडीसी को पूरा करने के लिए कार्बन क्रेडिट का इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं।

देशों के बीच सहमति इसलिए नहीं बन पाई क्योंकि प्रस्तावित नियमों में पर्यावरण और मानवाधिकारों की मजबूत रक्षा के प्रावधान नहीं थे। 2015 में हुए पेरिस समझौते का आर्टिकल 6 कुल 9 पैराग्राफों में बताता है कि कैसे देश अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वैच्छिक सहयोग कर सकते हैं। कॉप 28 ने तीन विषयों पर चर्चा की:  आर्टिकल 6.2: (यह एक विकेंद्रीकृत प्रणाली है जहां देश आपस में द्विपक्षीय समझौते कर सकते हैं)। आर्टिकल 6.4: (यह एक केंद्रीकृत बाजार प्रणाली है जो व्यापार से पहले कार्बन क्रेडिट की उच्च गुणवत्ता को प्रमाणित करने, पुष्टि करने और जांच के लिए साझा मानक प्रदान करती है)। आर्टिकल 6.8: (यह गैर-बाजार तरीकों को शामिल करता है, जहां सहयोगी संस्थाएं बिना व्यापार के ही जलवायु अनुकूलन और उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों को पूरा कर सकती हैं)। आर्टिकल 6 पर वैसे तो 2015 में ही सहमति बन गई थी, लेकिन इसे लागू करने का तरीका तय करने वाली रूलबुक 2021 में कॉप 21 के दौरान ही तय हो सकी। सबसे बड़ी चुनौती दोहरी गिनती को रोकना था। दोहरी गिनती तब होती है जब एक ही कमी को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में दोनों देश यानी मेजबान और खरीदार अपने एनडीसी लक्ष्यों में गिनते हैं। देशों ने इस पर सहमति जताई कि बेचने वाला अपनी कमी की घोषणा नहीं कर सकता, उसे तो बेचे गए हिस्से को अपने लक्ष्य से घटाना ही होगा, जबकि खरीदार अपने लक्ष्य में इस कमी को शामिल कर सकता है।

लेकिन रूलबुक यानी नियमपुस्तिका पूरी होने से कोसों दूर थी। आने वाले वर्षों में देशों को बाजार (आर्टिकल 6.2 और 6.4) और गैर-बाजार (आर्टिकल 6.8) तरीकों को लागू करने के सख्त नियम बनाने की जिम्मेदारी दी गई।

नई दुनिया के लिए नए वादे 

देशों ने तय किया है कि वह फंड, कर और निवेश के जरिए कैसे प्रकृति को बढ़ावा देंगे

  • केन्या, कोलंबिया और फ्रांस की सरकारों ने मिलकर विशेषज्ञों का एक समूह बनाया है जो कर्ज, प्रकृति और जलवायु पर वैश्विक समीक्षा करेगा। साथ ही पता लगाएगा कि कर्ज के तले दबे देशों की मदद के लिए क्या किया जा सकता है।
  •  फ्रांस ने केन्या, बाराबडोस, स्पेन और कुछ अन्य देशों जहाज, हवाई जहाज आदि के प्रदूषण पर भी टैक्स लगाना प्रस्तावित किया है।
  •  मल्टीलेटरल डिवेलपमेंट बैंक (एडीबीएस) देशों के कर्ज का एक हिस्सा माफ कर देंगे, बदले में वे अपने देश में जलवायु और पर्यावरण कार्यों में निवेश करेंगे।
  •  विश्व बैंक, अफ्रीकी विकास बैंक, यूरोपीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक, इंटर-अमेरिकन विकास बैंक जैसे एमडीबी प्राकृतिक आपदाओं के समय (जैसे तूफान या सूखा) कुछ समय के लिए कर्ज भुगतान रोकने की योजना बना रहे हैं।
  •  इंटर-अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक (आईडीबी) और यूनाइटेड स्टेट्स इंटरनेशनल डिवेलपमेंट फाइनेंस कॉर्पोरेशन (डीएफसी) ने मिलकर एक नया टास्क फोर्स बनाने का ऐलान किया है। इसकी पहली बैठक जनवरी 2024 में होगी। इसका मकसद जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों की मदद करना है। यह काम उनके कर्ज पर ब्याज घटाकर और जोखिम को कम करके निजी निवेश आकर्षित करने के जरिए होगा।
  •  कॉप 28 की अध्यक्षता करने वाले यूएई ने ‘अल्टेरा’ नाम का 30 अरब डॉलर का एक नया फंड लॉन्च किया है। इसका मकसद 2030 तक क्लाइमेट एक्शन के लिए 250 अरब डॉलर जुटाना है। हालांकि, कितना पैसा जुटाया जा सकेगा और इसमें से कितना ग्लोबल साउथ के देशों तक पहुंचेगा, यह अभी साफ नहीं है।
  •  विश्व बैंक ने ऐलान किया है कि वह 2024 से 2025 के बीच 45 फीसदी खर्च जलवायु से जुड़े प्रोजेक्ट्स पर करेगा। बैंक जलवायु के लिए कार्बन क्रेडिट बेचना भी शुरू करेगा। 2024 के अंत से पहले उसकी नजर 2.4 करोड़ कार्बन क्रेडिट बेचने पर है। यह क्रेडिट वियतनाम, ग्वाटेमाला, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो जैसे देशों से आएगा।

कॉप 28 में निम्न बिंदुओं पर क्या हुआ?

आर्टिकल 6.: आर्टिकल 6.2 देशों को आपसी समझौतों के जरिए कार्बन क्रेडिट के व्यापार करने की अनुमति देता है। कार्बन क्रेडिट को “इंटरनेशनली ट्रेडेड मिटिगेशन आउटकम्स” (आईटीओएमएस) कहा जाता है। दुबई में सम्मेलन के दौरान कॉप 21 में बनाए गए ढांचे को पूरी तरह से लागू करने के लिए आगे का मार्गदर्शन देने का लक्ष्य था।

कॉप 28 में जारी किए गए मसौदों पर देशों के बीच तीखी बहस हुई। टेक्स्ट को कई बार बदलने और कई बैठकें होने के बाद भी देशों के बीच अलग-अलग राय के कारण सहमति नहीं बन पाई। उदाहरण के लिए, कुछ देशों ने बेचे गए क्रेडिट के अधिकार को रद्द करने की संभावना पर आपत्ति जताई। अगर मेजबान देश को बेचे गए कुछ क्रेडिट को रद्द करने और उन्हें अपने जलवायु लक्ष्य में शामिल करने की अनुमति दी जाती है तो समस्याएं हो सकती हैं। कार्बन मार्केट वॉच के वैश्विक कार्बन बाजार नीति विशेषज्ञ जोनाथन क्रुक ने डाउन टू अर्थ’ को बताया “यदि क्रेडिट पहले ही कारोबार कर चुका है तो इससे दोहरी गणना का जोखिम बढ़ जाता है।”

बातचीत के दौरान ब्रिटेन ने क्रेडिट को रद्द करने के अधिकार के खिलाफ आवाज उठाई, क्योंकि इससे व्यापार को नुकसान हो सकता है। लेकिन अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे समेत कुछ देशों का समूह इससे असहमत था। उन्होंने इस विकल्प का समर्थन किया कि अगर मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है तो कार्बन क्रडिट को वापस ले लिया जाए।

हालांकि, नियमों पर सहमति नहीं बन पाई है, लेकिन देशों ने पहले ही द्विपक्षीय समझौते कर लिए हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कोपेनहेगन जलवायु केंद्र ने 7 अलग-अलग खरीदारों (जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, स्विट्जरलैंड और नॉर्वे) और 42 मेजबान देशों के बीच 67 द्विपक्षीय समझौतें किए हैं। देशों के बीच ये द्विपक्षीय समझौते कार्बन व्यापार के लिए एक समान और पारदर्शी दृष्टिकोण की तरफ बढ़ने को और जटिल बनाते हैं।

आर्टिकल 6.4: आर्टिकल 6.4 के तहत उत्सर्जन कम करने या हटाने वाली परियोजना विकसित करने वाले मेजबान देशों को अपने प्रस्ताव को पर्यवेक्षण निकाय (सुपरवाइजरी बॉडी यानी एसबी) को भेजना होता है, जो बाजार की देखरेख करने वाला संयुक्त राष्ट्र पैनल है। मेजबान देश और एसबी की तरफ से मंजूरी मिलने के बाद ये परियोजनाएं कार्बन क्रेडिट अर्जित कर सकती हैं। ये क्रेडिट अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देशों और कंपनियों या यहां तक कि व्यक्तियों को बेचे जा सकते हैं।

कॉप 28 में जारी किए गए विभिन्न मसौदों के टेक्स्ट पर भी जमकर बहस हुई। इनमें परियोजनाओं से उत्सर्जन कम करने और हटाने (परियोजनाएं जो वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को हटाती हैं) की गणना के लिए तरीकों के मानक स्थापित करने पर एसबी की तरफ से की गईं सिफारिशें शामिल थीं। कार्बन हटाने की परियोजनाएं प्रकृति-आधारित हो सकती हैं जो जंगलों, मैंग्रोव और कृषि मृदा का उपयोग करती हैं या तकनीक-आधारित समाधान जैसे बड़ी मशीनों को तैनात करना और कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर और स्टोर करना।

11 दिसंबर को हुई बैठक में यूरोपीय संघ ने कहा कि मसौदा टेक्स्ट यह स्पष्ट तौर पर और मजबूती से नहीं कहता कि कार्बन मार्केट उत्सर्जन कम करने में योगदान दे सकता है। हवा से कार्बन हटाने का मतलब क्या है, इसकी परिभाषा क्या है, इसे लेकर भी सवाल उठे। अफ्रीकी समूह, यूरोपीय संघ और रूस जैसे गुट नहीं चाहते कि पर्यवेक्षण निकाय (एसबी) उत्सर्जन हटाने की परिभाषा फिर तय करे। एसबी कहता है: हटाना वह प्रक्रिया है जो मानवजनित गतिविधियों के माध्यम से ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल से हटाती है और उन्हें नष्ट कर देती है या स्थायी रूप से संग्रहित करती है।

लेकिन विशेषज्ञों को इस परिभाषा में खामियां दिखती हैं। उदाहरण के तौर पर, जोनाथन क्रुक डाउन टू अर्थ  को बताते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड को रखने के लिए कितना समय चाहिए, यह अब तक साफ नहीं है। इससे अस्थायी तौर पर कार्बन रखने वाली परियोजनाओं को रास्ता मिल सकता है।

13 दिसंबर को किसी समझौते पर सहमति नहीं बन सकी, कोई डील नहीं हो पाई। किसी स्पष्ट फैसले का न हो पाने का मतलब है कार्बन बाजार में एक और साल तक अनिश्चितता। इससे कंपनियां अपने उत्सर्जन को ऑफसेट करने के लिए पहले से मौजूद स्वैच्छिक बाजारों का इस्तेमाल कर सकती हैं। लेकिन ये कितनी कारगर है, इस पर सवाल बना रहेगा। डाउन टू अर्थ और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की पिछली जांच में पाया गया था कि स्वैच्छिक कार्बन मार्केट प्रोजेक्ट लोगों और जलवायु को फायदा नहीं पहुंचा सकते।

इसके अलावा भी कई चिंताएं हैं। आर्टिकल 6.4 को लागू करने में और देरी हुई तो आर्टिकल 6.2 में ज्यादा परियोजनाएं आ सकती हैं क्योंकि इसकी बातचीत काफी आगे यानी अडवांस स्टेज में बढ़ चुकी हैं।

 नेट जीरो अलाइंड ऑफसेटिंग के रिसर्च असोसिएट इंजी जॉनस्टोन डाउन टू अर्थ  को बताती हैं “आर्टिकल 6.2 में पर्यावरण सुरक्षा के लिए कोई पक्के मानक नहीं हैं क्योंकि ये दो देशों के बीच तय होते हैं।” अब मसौदा फिर तैयार किया जाएगा और अगले कॉप 29 में पेश किया जाएगा।

आर्टिकल 6.8: कॉप 28 में आर्टिकल 6.8 के लिए मसौदा टेक्स्ट को मंजूरी दे दी गई। यह आर्टिकल नॉन-मार्केट क्लाइमेट ऐक्शन पर जोर देता है। मुख्य तौर पर 2 मुद्दों पर बात हुई: एक- ग्लासगो कमेटी को मान्यता देने और दूसरा आइडिया-शेयरिंग प्लेटफॉर्म न बन पाने को लेकर चर्चा।

2021 में बनाई गई ग्लासगो कमेटी का काम था देशों के लक्ष्यों (एनडीसी) में बाजार के बाहर सहयोग से उत्सर्जन कम करने और अनुकूलन कार्रवाई के लिए ढांचा बनाना। कॉप 28 में इस कमेटी के अब तक के काम को सराहा गया। देशों ने नॉन-मार्केट बेस्ड अप्रोच को लेकर आइडिया शेयरिंग के लिए वेब-आधारित प्लेटफॉर्म नहीं बन पाने की नाकामी पर भी चर्चा की।

दुर्भाग्य से आइडिया शेयरिंग के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाने की पहल आगे नहीं बढ़ पाई। आर्टिकल 6.8 पर चर्चा में बारीक बिंदुओं पर गहराई से ज्यादा बात नहीं हुई। कुल मिलाकर, बाजार-आधारित समाधानों पर ज्यादा जोर दिया गया है, जिससे बाजार से हटकर काम करने के तरीकों को पीछे की तरफ धकेल दिया गया है।

कॉप 28 में पहली बार उन मुद्दों को छुआ है जिन्हें तीन दशक पहले छुआ जाना था। क्लाइमेट फंड और टेक्नोलॉजी के लेन-देन का मामला अब भी अनसुलझा है। विकसित बनाम विकासशील देश की इस लड़ाई में यह बात धीरे-धीरे साफ हुई है कि विकासशील देश ज्यादा मुखर हो रहे हैं और विकसित देशों पर दबाव बनाने में उन्हें बड़ी सफलता   मिल रही है।

 कॉप 28 से आगे का रास्ता

प्राकृतिक गैस, स्वेच्छा कार्बन बाजार जैसे “संक्रामक” ईंधन और निजी क्षेत्र वित्त की मिथकीय भूमिका की समस्या से प्रबलता से निपटना होगा।

By Avantika Goswami

दुबई में हुए जलवायु परिवर्तन पर 28वें कॉन्फ्रेंस (कॉप 28) का परिणाम क्या रहा, किन मुद्दों पर वार्ताएं हुई। इस पर डाउन टू अर्थ ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जिसे पांच भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है। अब तक आपने पढ़ा, भाग 1 : जानिए यहां कॉप 28 रहा कितना सफलभाग 2 : यहां जानिए कॉप 28 के अहम फैसले और देशों की राय , भाग 3 : कॉप 28 में उत्सर्जन को खत्म करने के लिए क्या बनी रणनीति, यहां जानिए । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा: भाग 4 : यहां जानिए कॉप 28 में जलवायु वित्त का क्या हुआ, कौन से फैसले 2024 के लिए टले । आज पढ़ें अंतिम कड़ी :  

विकसित और विकासशील की विभाजनरेखा पर अवस्थित एक देश द्वारा आयोजित काॅप 28 के सम्मेलन में जो परिणाम सामने आये, उन्हें ध्यान में रख कर विचार किया जाए तो बीते कॉप सम्मेलनों की तरह यह कॉप सम्मेलन भी न तो पूरी तरह सफल रहा और न ही बहुत सार्थक सिद्ध हो पाया। 

समापन सत्र में शामिल होने वाले विभिन्न देशों ने जो वक्तव्य दिए उनके अनुसार यह सम्मेलन एक सतर्कतापूर्ण और सोचा-विचारा मसौदा था।

बांग्लादेश ने कहा “पहली बार ऐसा हुआ कि हम सभी अपनी-अपनी सहज स्थितियों से से बाहर आकर जटिल स्थितियों को व्यापकता के साथ देख रहे थे।” वहीं, वेनेजुएला ने कहा “सम्मेलन की कमियों को स्वीकार किया गया। साथ ही जीवाश्म ईंधनों के मामले में विकसित देशों को आगे बढ़ कर नेतृत्व करने की आवश्यकता पर बल दिया गया हालांकि इसे मसौदे में नहीं दिखाया गया है।” भारत का रुख  यह रहा कि जब काॅप महत्वाकांक्षी कामों की रुपरेखा तैयार कर रहा है, तब वह चाहता है कि इन निर्णयों को जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन के माध्यम से वास्तविकता का रूप दिया  जाना चाहिए। 

भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा “आगे का सफर तय करने से पहले यह स्वीकार किये जाने की जरूरत है कि जलवायु-न्याय के मामले में सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा।”  इसमें कोई संशय नहीं है कि जीवाश्म ईंधन पर ज़रूरी सवाल – मसलन ऋण संकट और जलवायु से जुडी महत्वाकांक्षाओं के लिए वित्तीय मदद को कार्बन अवशोषण और भंडारण के अतिरिक्त ग्रीन वाश जैसे मसलों से भी  टकराना होगा।

प्राकृतिक गैस, स्वेच्छा कार्बन बाजार जैसे “संक्रामक” ईंधन और निजी क्षेत्र वित्त की मिथकीय भूमिका की समस्या से प्रबलता से निपटना होगा।

और चूंकि जीवाश्म ईंधन की समाप्ति की सुस्पष्ट चरणबद्धता और समयसीमा के अभाव में जीएसटी परिणाम अत्यधिक त्रुटिपूर्ण हैं, ऐसे में आईईए के पास पहले से यह कार्यक्रम है कि इस दशक में जीवाश्म ईंधन की मांग अपने शीर्षतम बिंदु पर होगी।

जीवाश्म ईंधन उद्योग इस सत्य से बखूबी परिचित हैं कि हरित तकनीक कीमतों को कम करने और विस्तृत अनुकूलन के सन्दर्भ में इस दौड़ में आगे है। यह बात महत्वपूर्ण है कि “जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने” की आवश्यकता और स्वीकार्यता द्वारा निर्मित इस गतिशीलता का पूरा उपयोग नहीं होने की स्थिति में इस प्रक्रिया में और विलंब हुआ है। काॅप 29 की अध्यक्षता अजरबैजान के जिम्मे है, जो कि खुद एक गैस और तेल उत्पादक देश है। ऐसे में आशा है कि वह अपने उत्तरदायित्वों का  भलीभांति  निर्वहन करने से ही पूरी तरह सफल  होगा।

जलवायु-न्याय की दृष्टि से हमें अच्छी तरह यह पता है कि क्या कुछ करने की आवश्यकता है। अमीर और प्रदूषण फैलाने वाले देशों को वरीयता के क्रम पर अपनी अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करना होगा। साथ ही यह  प्राथमिकता में रखना होगा कि वह जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता को धीरे धीरे घटाएं।

विकसित देशों को  विकासशील देशों को वही साधन उपलब्ध कराने होंगे ताकि अपने विकास के लक्ष्यों की बलि चढ़ाए बगैर वे भी यह काम अधिक क्रमबद्धता के साथ कर सकें।  विकासशील देशों को शमन और अनुकूलन के घरेलू उपायों को खोजने के लिए अधिक तत्पर होना होगा, और अगले काॅप सम्मेलन से पहले अपनी वित्तीय आवश्यकताओं की रूपरेखा बनानी होगी।

विकसित देशों को अगले काॅप को “फाइनेंस कॉप” का नाम देना होगा, जहां जलवायु वित्त पर सामूहिक और मात्रा-निर्धारित लक्ष्य निश्चित किया जाएगा। 2024 का वर्ष सिद्धांत को व्यावहारिकता का रूप देने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण वर्ष होगा।

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