कैसे हों देश के मास्टरजी
अथवा
कैसे मिले भारत को समर्पित गुरुजन
आर.के. सिन्हा
शिक्षक दिवस पर आज सारा देश अपने शिक्षकों की ही चर्चा करेगा। यह साफ है कि बेहतर और समर्पित शिक्षकों के बिना हम राष्ट्र निर्माण सही ढंग से नहीं कर सकते। पर हमारे देश में एक बड़ी समस्या यह सामने आ रही है कि कम से कम स्कूली स्तर पर कोई बहुत मेधावी युवा शिक्षक नहीं बन रहे हैं। आप अपने अड़ोस-पड़ोस के किसी मेधावी लड़के या लड़की को शिक्षक बनता नहीं देखेंगे। ये ऐसा क्यों हो रहा है? इसी पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा? हमें अपने मेधावी नौजवानों को भी शिक्षक बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए। सच में वर्तमान में तो चिंताजनक स्थिति ही बनी हुई है।
जिस भारत के राष्ट्रपिता भी शिक्षक रहे हों वहां के योग्य नौजवान मन से शिक्षक नहीं बन रहे हैं। वास्तव में यह विडंबना ही है। यह तथ्य कम लोगों को पता है कि महात्मा गांधी कुछ समय तक मास्टर जी भी रहे हैं। उनकी पाठशाला राजधानी की वालमिकी बस्ती में चलती थी। वे अपने विद्यार्थियों को अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ाते थे। उनकी कक्षाओं में सिर्फ बच्चे ही नहीं आते थे। उसमें बड़े-बुजुर्ग भी रहते थे। वे शाम के वक्त वाल्मिकी बस्ती में रहने वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाते थे। गांधी जी उन विद्यार्थियों को फटकार भी लगा देते थे, जो कक्षा में साफ-सुथरे हो कर नहीं आते थे। वे स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते थे। वे मानते थे कि स्वच्छ रहे बिना आप सही ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते।
अगर बात राष्ट्रपिता के बाद राष्ट्रपति की करें तो हमारे यहां कई राष्ट्रपति मूल रूप से शिक्षक ही थे। उन्हें महामहिम बनने पर भी बच्चों को पढ़ाना पसंद भी रहा। ये राष्ट्रपति भवन के अंदर चलने वाले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय विद्लाय में पढ़ाते रहे हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद लगातार राष्ट्रपति भवन के स्कूल में आकर बच्चों से मिलते थे। उनके पाठ्यक्रम पर भी चर्चा कर लिया करते थे। डॉ एस. राधाकृष्णन, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. शंकर दयाल शर्मा और मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम भी शिक्षक ही थे राष्ट्रपति भवन में आने से पहले। ये सब भी बच्चों से मिलना पसंद करते थे। ये बीच-बीच में शिक्षक के रोल में आकर अपने को अच्छा महसूस करते थे। हमें इस तरह के शिक्षक चाहिए जो 24x7 के शिक्षक हो। वे पढ़ने और पढ़ाने में ही विश्वास करते हों। मैं इस लिहाज से गांधी जी के मित्र दीन बंधु सीएफ एंड्रयूज की परंपरा के फादर मोनोदीप डेनियल का उल्लेख करना चाहता हूं। वे देश के सबसे मशहूर सेंट स्टीफंस कॉलेज में पिछले साठ सालों से इंग्लिश पढ़ा रहे हैं। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज से फुर्सत मिलते ही दिल्ली से सटे साहिबाबाद के दीन बंधु स्कूल में चले जाते हैं। यहां पर दिल्ली और यूपी के मेहनतकश परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। फादर डेनियल यहां पर भी इंग्लिश ही पढ़ाते हैं। दीन बंधु स्कूल को सीएफ एंड्रयूज के नाम पर दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी ने स्थापित किया था। वे भी इस सोसायटी के सदस्य थे। फादर डेनियल कहते हैं कि उन्हें बच्चों में भगवान नजर आता है। इसलिए ही वे सेंट स्टीफंस कॉलेज से जब भी वक्त मिलता है, तो वे दीन बंधु स्कूल में चले जाते हैं। उनका फोकस रहता है कि उनके छात्र-छात्राएं इंग्लिश ग्रामर को सही से समझ लें। सी.एफ.एंड्रयूज भी सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाते थे। वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से 1916 में मिले थे। उसके बाद दोनों घनिष्ठ मित्र बने। उन्होंने 1904 से 1914 तक सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया। उन्हीं के प्रयासों से ही गांधी जी पहली बार 12 अप्रैल-15 अप्रैल, 1915 को दिल्ली आए थे।
अब एक सवाल ठीक-ठाक सैलरी लेने वाले शिक्षकों से? क्या वे बताएंगे कि वे अपने को बदलते वक्त के साथ कैसे तैयार करते हैं? क्या वे लगातार अध्ययन करते हैं? मुझे कहने दें कि इस तरह के शिक्षकों की संख्या तो लगातार घट रही है। स्थायी नौकरी मिलने के बाद बहुत से शिक्षक मान लेते हैं कि अब उन्हें पढ़ने-लिखने की जरूरत ही नहीं है। ये ही समस्या की जड़ है। दिल्ली के बड़बोले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया बता दें दिल्ली के शिक्षक लगातार अपने को अपडेट करने के लिए क्या कर रहे हैं? दिल्ली के स्कूलों को वर्ल्ड क्लास बनाने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल तथा मनीष सिसोदिया क्यों नहीं बताते कि दिल्ली सरकार के स्कूल प्राइवेट स्कूल तो छोड़ दें, वे केन्द्रीय विद्लायों तथा नवोदय विद्लायों की तुलना में भी कहीं खड़े नहीं हैं। मोटा-मोटी इसकी वजह ये है कि दिल्ली सरकार अपने शिक्षकों को उच्च कोटि का बनाने की दिशा में गंभीर नहीं है। हां, दिल्ली सरकार बातें और दावे करने में पहले नंबर पर अवश्य है।
दरअसल देश को वे शिक्षक मिलने चाहिए जो शिक्षक धर्म का निर्वाह करने के प्रति ईमानदार और प्रतिबद्ध हों। जो टीचिंग को किसी भी पेशे की तरह मानता है, वह कभी आदर्श शिक्षक बन ही नहीं सकता। शिक्षक एक अलग तरह का पेशा है। देश को चाहिए श्री राम सरूप लुगानी जैसे मास्टरजी। उन्होंने दर्जनों दिल्ली पब्लिक स्कूल (डीपीएस) खोले। उनके कुशल नेतृत्व में राजधानी का दिल्ली पब्लिक स्कूल, आर.के.पुरम देश के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में से एक बना। वे सच्चे शिक्षक और गणितज्ञ थे। वे खुद भी गणित की कक्षाएं लेते थे और हरेक बच्चे को गणित के कठिन से कठिन फार्मूलों को सरल तरीके से समझाने की कोशिश करते थे। वे लगातार उन अध्यापकों की तलाश करते थे जो शिक्षक के कर्तव्यों के प्रति निष्ठा रखते हों। वे मानते थे कि एक अच्छे अध्यापक का धैर्यवान और विनोदप्रिय होने के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होना आवश्यक है। इसके अलावा, शिक्षक को चारित्रिक रुप से दृढ़ होना चाहिए।
बहरहाल, यह समझ लेना चाहिए कि स्कूली शिक्षकों के स्तर में गुणात्मक सुधार किए बगैर भारत विश्व गुरु नहीं बन सकता। इसलिए हमें इस तरफ और ध्यान देना होगा और निवेश करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)