भाजपा के असंख्य आरोपों, कोशिशों, जाँच एजेंसियो के छापो और चुनावी माहौल के भगवाकरण करने के बाद भी देश से निपटती व सिमटती जा रही कांग्रेस पार्टी ने बड़े आराम से प्रभावशाली बहुमत के साथ हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में न केवल जीत प्राप्त की वरन् सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच चल रहे शक्ति संघर्ष को भी निबटाकर अपनी सरकार का गठन भी कर लिया। गांधी परिवार तो इस जीत पर फूला न समा रहा और लोकसभा का दावा ठोंक रहा है।
तो उधर बीजेपी के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विपक्ष की अनगिनत आलोचनाओ, आरोपों, व्यवधानों क़ानूनी रूकावटो व बहिष्कार के उपरांत भी संसद के नए दिव्य, भव्य व भारतीयता से ओतप्रोत भवन को समय से न केवल पूरा करवाया वरन् उसका उद्घाटन भी कर दिया। अपने नौ साल के कार्यकाल को सफलतापूर्वक पूरा करने का रिकॉर्ड बनाने के साथ ही मोदी जी वि भाजपा ने उन हजारो कामों को गिनाया जो पिछले नौ साल में उन्होंने पूरे किए व उनको कांग्रेस के पचास सालों के शासन में हुए कामों से कहीं ज़्यादा बताया। टीम मोदी को भरोसा है कि राज्यो में समीकरण कुछ भी रहे हों मगर केंद्र में तो मोदी जी के नेतृत्व में एनडीए व भाजपा की ही सरकार बनेगी क्योंकि मोदी जिनके व्यक्तित्व व उनकी सरकार के कामों के कारण जो समर्थक व लाभार्थी वर्ग पैदा हुआ है वे सब संघ परिवार के परंपरागत समर्थकों के साथ मिलकर उनकी सरकार आसानी से बनवा ही देंगे। वैसे भी अभी मोदी जी के तरकश में कितने तीर हैं यह कोई नहीं जानता। जब वे चलेंगे तो विपक्ष का गणित बिगाड़ना तय है।
जीत जाने का श्रेय उच्चतम न्यायालय भी कर रहा है जिसने समलैंगिकता, दिल्ली सरकार व एलजी की अधिकारों के बँटवारे की लड़ाई में मोदी सरकार को बैकफुट पर ला दिया और अंतत: मोदी जी को अपने क़ानून मंत्री किरन रिज़िजू जोकि कोलिजियम के मुद्दे पर लगातार न्यायपालिका के ख़िलाफ़ मुखर हो रहे थे को हटाकर इस उम्मीद में दूसरे मंत्रालय में भेज दिया कि अब न्यायपालिका उनकी सरकार की नीतियों व दर्शन के इतर जाकर संविधान की व्याख्या नहीं करेगी । मोदी सरकार ने इसी भरोसे के साथ ही दिल्ली सरकार को न्यायालय द्वारा दिए गए सेवा संबंधी अधिकारों को पुनः उपराज्यपाल को देने के लिए अध्यादेश भी जारी कर दिया।
जीत का श्रेय इन दिनों नीतीश कुमार भी ले रहे हैं कि उनके प्रयासों से धीमी गति से ही सही मगर लोकसभा चुनावों से पूर्व विपक्ष के एक होने व बीजेपी के विरुद्ध मिलकर चुनाव लड़ने की संभावनाएँ बलबती हो रही हैं। नीति आयोग की बैठक का विपक्ष शासित राज्यो के मुख्यमंत्रियों द्वारा बहिष्कार , संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार,दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा केंद्र सरकार के अध्यादेश को विपक्ष से मिलता समर्थन , बंगलौर में कांग्रेस पार्टी की सरकार के शपथ ग्रहण के समय एकत्र हुए विपक्ष की मिली जुली लड़ाई के अगले कदम हैं जिनकी आक्रामकता अब लोकसभा चुनावों तक ऐसे ही मिलती रहेगी। इसी बीच विपक्ष पहलवानों व किसानों को जंतर मंतर पर फिर से बैठकर मोदी सरकार पर फिर से दबाव बनाए हुए है। उनको लगता है कि इस बार वे एनडीए, भाजपा व मोदी जी को हरा ही देंगे।
जीत की और तो केंद्रीय जाँच एजेंसिया व रिज़र्व बैंक भी हैं। एनईए, ईडी, आयकर, सीबीआई आदि की आतंकी हमलों, नेटवर्क व फ़ंडिंग, ड्रग्स व शराब माफिया, नेताओ के कालेधन, साइबर अपराधियों आदि के ख़िलाफ़ इतनी भारी मात्रा में कार्यवाही चल रही हैं जिनको देख हैरानी हो रही है। इन सबके बीच रिज़र्व बैंक द्वारा दो हज़ार के नोट को वापस लेने की घोषणा कालेधन के जमाख़ोरो व भ्रष्टाचारियों की कमर ही तौड़कर रख दी है।
उधर यूक्रेन युद्ध में रुस लगातार हावी होता जा रहा है और जीत की ओर बढ़ता जा रहा है। रुस की कूटनीतिक व सामरिक रणनीति में फँसकर अमेरिका और यूरोप विकराल आर्थिक मंदी , महंगाई व बेरोज़गारी के चक्र में फँसकर बर्बाद होते जा रहे हैं। इस बीच चीन तेज़ी से पाव फैलाकर एशिया व अफ़्रीका में अपने प्रभुत्व को बढ़ाता जा रहा है। नाटो देशों के नेताओ अमेरिका, इंग्लैंड व फ़्रांस की नींद उड़ी हुई हैं।
कूटनीति के मोर्चे पर भारत की पौ बारह है और वो चीन रुस व नाटो देशों के टकराव में दोनों गुटों की पसंद बन गया है। रुस उसे सस्ता तेल दे रहा है तो चीन भारत की सीमाओ पर आक्रामकता का नाटक कर रहा है। सबसे बड़ा दुश्मन पाकिस्तान आपसी सत्ता संघर्ष व मंदी के कारण बर्बादी के कगार पर है। उधर भारत को लुभाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति उनके ऑटोग्राफ माँग रहे हैं तो आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री उनको बॉस कह रहे हैं।अमेरिका, आस्ट्रेलिया व फ़्रांस के साथ ही इंग्लैंड व जापान विशेष व्यापारिक संधियों को बेताब हैं। भारत के लिए यह सब जितना लुभावना दिख रहा है उतना चुनौतीपूर्ण भी है। राजनय के मोर्चे पर भारत की हर दिन परीक्षा होनी तय है।
चाहे घरेलू राजनीति हो या फिर कूटनीति , समय जे साथ कब बाज़ी पलट जाए कुछ पता नहीं चलता जीत कब हार में बदल जाए यह कोई नहीं जानता। कोविड से बिगड़ी स्थिति हों या यूक्रेन युद्ध से पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था या फिर जलवायु परिवर्तन की मार से हो रहे इंफ्रास्ट्रक्चर को नुक़सान, मौतें व घटता अनाज का उत्पादन सब का प्रभाव महंगाई व बेरोज़गारी के साथ बीमारियों व विनाश के रूप में ही सामने आता है। भारत सहित विश्व की अधिकांश व्यवस्था से जुड़े लोगों व चंद कारोबारियों को छोड़ आम जनता पिछले चार वर्षों से यह मार बार बार झेल रही है। जीत हार से परे उसके लिए यह अस्तित्व का संघर्ष बन चुका है। राजनीति और राज़नय की जय विजय के बीच यह वर्ग बस पिसता जा रहा है , सिमटता जा रहा है। हार तो वह बहुत पहले ही चुका है।
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अनुज अग्रवाल,
संपादक,डायलॉग इंडिया