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राहुल विदेशों में बढ़ती साख कोे बट्टा लगा रहे हैं


 – ललित गर्ग –

कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत में मोदी-विरोध में कुछ भी बोले, यह राजनीति का हिस्सा हो सकता है, लेकिन वे विदेश की धरती पर मोदी विरोध के चलते जिस तरह के गलत बयान देते रहे हैं, वह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शाता है। आखिर कब राहुल एक जिम्मेदार एवं विवेकवान नेता बनेंगे? विदेश में कांग्रेस की यात्राओं के माध्यम से वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विश्वस्तरीय नेता की छवि को धुंधला कर स्वयं को उस स्तर का नेता साबित करने में जुटे हैं। जबकि मोदी की छवि एवं हस्ति, प्रसिद्धि एवं सर्वस्वीकार्यता विश्व के किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा है। अन्य देशों की बात दूर, वे अभी भारत में भी जिम्मेदार नेेता नहीं बन पाये हैं। उनकी कार्यशैली एवं बयानबाजी में अभी भी बचकानापन एवं गैरजिम्मेदाराना भाव ही झलकता है। एक प्रांत में क्या जीत हासिल कर ली, अहंकार के शिखर पर चढ़ बैठे, निश्चित ही राहुल के विष-बुझे बयान इसी राजनीतिक अहंकार से उपजे हैं।
इनदिनों की अपनी अमेरिका की यात्रा में राहुल गांधी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस को आड़े हाथ लिया। केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए उन्होंने ये भी कहा कि देश में आज मुसलमान ही नहीं, सभी अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी डरा हुआ महसूस कर रहे हैं। इस तरह के बयानों से मोदी एवं आरएसएस से ज्यादा भारत की बदनामी हो रही है, लगता है राहुल गांधी मोदी विरोध के नाम पर देश के विरोध पर उतर आए हैं। ये पहली बार नहीं है। लंदन की यात्रा के दौरान भी राहुल गांधी अपने बयानों से इसी तरह घिर गए थे। अमेरिका में उन्होंने केरल में अपने सहयोगी दल इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को पंथनिरपेक्ष होने का प्रमाण पत्र देते हुए कहा कि उसमें कुछ भी गैर सेक्युलर नहीं है। इसका मतलब है कि उनकी नजर में वह पक्के तौर पर पंथनिरपेक्ष है। उनका यह बयान जीती मक्खी निगलने जैसा और पंथनिरपेक्षता का उपहास है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांप्रदायिक चरित्र पर इस तरह की बातों से पर्दा पड़ने वाला नहीं है। वह जिन्ना की मुस्लिम लीग से अलग नहीं है, क्योंकि सच यही है कि विभाजन के बाद उसका गठन जिन्ना के समर्थकों ने ही किया था। आखिर राहुल गांधी किस मुंह से ऐसे सांप्रदायिक और विभाजनकारी अतीत वाले दल को पंथनिरपेक्ष होने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं? वे देश की एकता एवं अखण्डता को साम्प्रदायिक संकीर्णता से खण्डित करने की कोशिश करते हुए कब क्या कर जाएं, कहां नहीं जा सकता। हैरानी नहीं कि कल को वह बंगाल के घोर सांप्रदायिक और नफरती इंडियन सेक्युलर फ्रंट को भी पंथनिरपेक्ष होने का प्रमाण दे दें, क्योंकि कांग्रेस ने पिछला विधानसभा चुनाव उसके साथ मिलकर ही लड़ा था। कांग्रेस एवं उनके नेता राहुल का स्वभाव ऐसा हो गया है कि वे तिल को ताड़ एवं राई को पहाड़ बनाकर प्रस्तुति देते हैं, यह उनके दृष्टिकोण का दोष एवं अहंकार है। ‘डूंगर बलती दीखे, घर बलतो कोनीं दीखे’  इस कहावत के अनुसार अपनी हरकतों एवं रसातल में जाते जन-बल से आंख मूंदकर दूसरे में दोष देखना कांग्रेस का सहज स्वभाव हो गया है।
कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति आजादी मिल जाने एवं देश के दो टूकडे़ हो जाने के बावजूद कायम रही, इसीलिये बंटवारे के बाद कांग्रेस के नेताओं के सांप्रदायिक सोच से नाराज होकर सरदार पटेल ने यह कहकर उन्हें चेताया था कि दो घोड़ों की सवारी मत कीजिए। एक घोड़ा चुन लीजिए और जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे जा सकते हैं। सरदार पटेल ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया था कि लीग के जो समर्थक महात्मा गांधी को अपना दुश्मन नंबर एक बताते थे, वे अब उन्हें अपना दोस्त कह रहे हैं। भले ही संकीर्ण वोट बैंक की सस्ती राजनीति के चलते आज की कांग्रेस यह सब याद न रखना चाहती हो, लेकिन देश की जनता यह सब नहीं भूल सकती।
देश की जनता मोदी एवं राहुल के बीच के फर्क का महसूस कर रही है। जनता यह गहराई से देख रही है कि राहुल विदेशों में भारत की बढ़ती साख एवं विकास की तस्वीर कोे बट्टा लगा रहे हैं जबकि मोदी ने न केवल अपनी सरकार के दौरान भारत में आए बदलावों की सकारात्मक तस्वीरें विदेशी मंच पर पेश कीं, बल्कि दुनिया की समस्याओं को लेकर भी अपनी समाधानपरक सोच रखी। इसलिये उन्हें विश्व नेता के रूप में स्वीकार्यता मिल रही है। किन्हीं एक दो प्रांतों में हार की वजह से मोदी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ा है, भारत ही नहीं, समूची दुनिया में मोदी के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा का भाव निरन्तर प्रवर्द्धमान है। राहुल गांधी, उनके रणनीतिकारों और विदेशों में कांग्रेस के संचालकों का नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ परिवार के प्रति शाश्वत वैर-भाव एवं विरोध की राजनीति समझ में आती है लेकिन विदेश में देश की खराब छवि पेश कर और नेता को खलनायक बनाने से उन्हें इज्जत नहीं मिलेगी। यह तो विरोध की हद है! नासमझी एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का शिखर है!! उजालों पर कालिख पोतने के प्रयास हैं!!!
राहुल गांधी अपने आधे-अधूरे एवं विध्वंसात्मक बयानों को लेकर निरन्तर चर्चा में रहते हैं। उनके बयान हास्यास्पद होने के साथ उद्देश्यहीन एवं उच्छृंखल भी होते हैं। राहुल ने बातों-बातों में यह भी कह दिया कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर लिया है। वह देश के प्रमुख विपक्षी दल के नेता हैं। सरकार की नीतियों से नाराज होना, सरकार के कदमों पर सवाल उठाना उनके लिए जरूरी है। राजनीतिक रूप से यह उनका कर्तव्य भी है। लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या विदेशी धरती पर वह मात्र भारत के विपक्षी दल के नेता होते हैं? क्या उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भारत का भी प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? यह समस्या मात्र राहुल गांधी की नहीं है। पूरा विपक्ष यह नहीं समझ पा रहा है कि सत्ताधारी दल के विरोध और देश के विरोध के बीच फर्क है। सत्ताधारी दल का विरोध करना स्वाभाविक है, लेकिन उस लकीर को नहीं पार करना चाहिए, जिससे वह देश का विरोध बन जाए। ऐसे बयानों से किस पर और कैसे प्रभाव पड़ता है। सरकार और राष्ट्र के विरोध के बीच अंतर समझना भी आवश्यक है। उल्लेखनीय बात यह है कि निन्दक एवं आलोचक कांग्रेस को सब कुछ गलत ही गलत दिखाई दे रहा है। मोदी एवं भाजपा में कहीं आहट भी हो जाती है तो कांग्रेस में भूकम्प-सा आ जाता है। मंजे की बात तो यह है कि इन कांग्रेसी नेताओं को मोदी सरकार की एक भी विशेषता दिखाई नहीं देती, कितने ही कीर्तिमान स्थापित हुए हो, कितने ही आयाम उद्घाटित हुए हो, देश के तरक्की की नई इबारतें लिखी गयी हो, समूची दुनिया भारत की प्रशंसा कर रही हो, लेकिन इन कांग्रेसी नेताओं को सब काला ही काला दिखाई दे रहा है।  कमियों को देखने के लिये सहस्राक्ष बनने वाले राहुल अच्छाई को देखने के लिये एकाक्ष भी नहीं बन सके? बने भी तो कैसे? शरीर कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मक्खियों को तो घाव ही अच्छा लगेगा। इसी प्रकार राहुल एवं कांग्रेस को तो अच्छाइयों में भी बुराई का ही दर्शन होगा।
भारत जैसे सशक्त लोकतंत्र के लिये विवेकशील और जनता के मानस को समझने वाला विपक्ष चाहिए, यह लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। लेकिन कांग्रेस एवं राहुल विपक्ष की भूमिका में खरा नहीं उतरे हैं, जबकि लोकतंत्र का तकाजा है कि जो विपक्ष में अपनी भूमिका का सशक्त निर्वाह करता है वहीं सत्ता पर काबिज होने के काबिल है। यह बात राहुल को समझनी होगी। किंतु यदि विष-बुझे बयानों से एक खेमे की वाहवाही लूटने का प्रयत्न किया जाएगा, तो राहुल जनता से और अधिक कटते जाएंगे। राहुल को यह समझना होगा कि इस तरह भारत के जनमानस पर पकड़ नहीं बना पाएंगे। विदेश में चंद लोगों के सामने कुछ कह देने और बदले में चंद तालियां पा लेने से देश का समर्थन नहीं मिलेगा। इस बात को राहुल जितनी जल्दी समझ लें, उतना बेहतर। जनता को गुमराह करने के लिये और उनका मनोबल कमजोर एवं संकीर्ण करने के लिये कांग्रेस उजालों पर कालिख पोत रही है, इससे उसी के हाथ काले होने की संभावना है। इसकी बजाय वह अपनी शक्ति को स्वस्थ एवं साफ-सुथरी राजनीति करने में लगाये तो अपने राजनीतिक धरातल को मजबूत कर पाएंगी।

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