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क्या कश्मीर में बदलते हालात जंग की आहट है?- ललित गर्ग

लम्बे समय की शांति, अमन-चैन एवं खुशहाली के बाद एक बार फिर कश्मीर में अशांति एवं आतंक के बादल मंडराने लगे हैं। धरती के स्वर्ग की आभा पर लगे ग्रहण के बादल छंटने लगे थे कि एक बार फिर कश्मीर के पुलवामा के अचन गांव में एक कश्मीरी पंडित की हत्या ने अनेक सवाल खडे़ कर दिये हैं। सवाल अनेक हैं लेकिन एक ज्वलंत सवाल है कि क्या कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के सिलसिले का कभी अंत हो पाएगा? क्या अचन गांव में एक और कश्मीरी पंडित की हत्या भी अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां बनकर ही रह जाएगा? क्या कश्मीर घाटी का अमन-चैन वापस लौटेगा? कश्मीर पहले की तरह धरती का स्वर्ग नजर आएगा? इन सवालों का जवाब सिर्फ कश्मीर की जनता ही नहीं, बल्कि देश के साथ पूरी दुनिया भी जानने को उत्सुक है। यह सही है कि घाटी में सुरक्षा बलों और सैन्य ठिकानों पर हमले अब काफी कम हो गए हैं, लेकिन आम नागरिकों और खासकर कश्मीरी पंडितों और प्रवासी कामगारों की सुरक्षा से जुड़े सवाल अब भी अहम एवं कायम हैं।
बीते साढ़े तीन दशक के दौरान कश्मीर का लोकतंत्र कुछ तथाकथित नेताओं का बंधुआ बनकर गया था, जिन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये जो कश्मीर देश के माथे का ऐसा मुकुट था, जिसे सभी प्यार करते थे, उसे डर, हिंसा, आतंक एवं दहशत का मैदान बना दिया। वैसे तो कश्मीर अनेक बार जंग का मैदान बनी है, लेकिन इस बार चुनाव का मैदान है। बुलट की जगह है बैलेट। जंग कोई भी हो खतरा तो उठाना ही पड़ता है। जंग कैसी भी हो, लड़ता पूरा राष्ट्र है। भारत की इज्जत और प्रतिष्ठा है कश्मीर, नाक है। कितनी कीमत चुका दी, चुका रहे हैं। वहां राजनीतिज्ञों की माँग है- स्वायत्तता। जनता ही माँग है- शांति। दोनों चाहते हैं वहां लोकतंत्र लौटे। दोनों को इन्तजार है नतीजों का। इधर पूरे राष्ट्र व विश्व को भी इन्तजार है नतीजों का।
तीन दशकों से कश्मीर घाटी दोषी और निर्दाषी लोगों के खून की हल्दीघाटी बनी रही है। लेकिन वर्ष 2014 के बाद से, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से वहां शांति एवं विकास का अपूर्व वातावरण बना है। केन्द्र सरकार के सामने अब बड़ा लक्ष्य है वहाँ लोगों को बन्दूक से सन्दूक तक लाने का, बेशक यह कठिन और पेचीदा काम है लेकिन राष्ट्रीय एकता और निर्माण संबंधी कौन-सा कार्य पेचीदा और कठिन नहीं रहा है? इन कठिन एवं पेचीदा कामों को आसान करना ही तो मोदी का जादू रहा है। लेकिन उससे पहले कश्मीरी पंडितों के पलायन को रोकना ज्यादा जरूरी है। उनकी जीवन-रक्षा ज्यादा मूल्यवान है। अब ताजा घटना में मारे गए कश्मीरी पंडित का परिवार भी पलायन की सोच रहा है। सरकार पंडितों पर खतरे से अनजान नहीं है। इन्हें लंबे समय से योजनाबद्ध तरीके से कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जा रहा है। इसे रोक पाने में सरकार को विशेष सफलता मिलती नहीं दिख रही है। लक्षित हमलों में अक्तूबर 2021 से अब तक पांच पंडितों की हत्या की जा चुकी है। इनमें से चार ऐसे थे, जिन्होंने 1990 में आतंक के भयावह दौर में भी घाटी से पलायन नहीं किया था। अचन गांव के साठ पंडित परिवारों में से उनसठ तभी पलायन कर गए थे। मारे गए व्यक्ति को पुलिस ने जान पर खतरे के बारे में पहले ही आगाह कर दिया था, जिसके बाद वे पिछले तीन-चार महीने से अपने काम पर नहीं जा रहे थे। घर के पास सुरक्षा के लिए पुलिस की भी तैनाती थी। इस सारे एहतियात के बावजूद उनकी हत्या हो जाने से लगता है कि आतंकियों के पास स्थानीय समर्थन है, जो उन्हें लक्ष्य की गतिविधियों की खबर देता था। इन आतंकी गिरोहों के पास ज्यादा मजबूत खुफियातंत्र है। इन हत्याओं से आम पंडितों और प्रवासी कामगारों को यह लगना स्वाभाविक है कि सरकार उनकी सुरक्षा में विफल है और वे फिर पलायन की सोच सकते हैं। पर यह आतंक को खाद-पानी देने जैसा होगा। आतंक के पोषक और उनके आका भी यही चाहते हैं कि डर कर घाटी में बचे-खुचे पंडित भी पलायन कर जाएं और दशकों पहले घर-बार छोड़ कर भाग चुके पंडित घर वापसी के बारे में कतई न सोचें। यह तो जीत की ओर बढ़ते कदमों के पीछे हटने जैसे हालात है। सरकार घर-बार छोड़कर भाग चुके पंडितों की घाटी में वापसी चाहती है। पर वे लोग, जिन्होंने नब्बे के दशक में आतंक के दौर में भी घाटी नहीं छोड़ा, अब चुन-चुन कर मारे जा रहे हैं तो जम्मू या देश के अन्य हिस्सों में रह रहे पंडितों को वापसी के लिए कैसे मनाया जा सकता है। असुरक्षा की भावना अब भी उतनी ही है, जितनी पहले थी। हमारे लिए कश्मीर सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा मात्र नहीं है, यह हमारी शान है, इससे हमारा भावनात्मक एवं राष्ट्रीय जुड़ाव है। पुलवामा में सैनिकों पर हो या अमरनाथ यात्रियों पर, दिमाग में कौंध रहे सवाल और बड़े होकर उमड़ने लगते हैं। यह सही है कि आतंकी घटनाएं पूरी दुनिया के लिए चुनौती बनी हुई हैं, लेकिन क्या हम कश्मीर में इसे जड़ से उखाड़ नहीं फेंक सकते? आतंककारी घटनाओं पर देश में होने वाली राजनीति भी इस दिशा में नकारात्मक पहलू माना जा सकता है। सब जानते हैं कि पिछले साढ़े तीन दशक में दिल्ली और कश्मीर की सत्ता पर भाजपा भी काबिज रही है और कांग्रेस भी। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, समाजवादी पार्टी और राजद जैसे दल भी सहयोगियों की भूमिका में रह चुके हैं, लेकिन विपक्ष में जो भी दल होता है, सरकार पर निशाना साधने से न चूका है और न चूकेगा।
15 अगस्त 47 के दिन से ही पड़ोसी देश पाकिस्तान एक दिन भी चुप नहीं बैठा, लगातार आतंक की आंधी को पोषित करता रहा, अपनी इन कुचेष्ठाओं के चलते वह कंगाल हो चुका है, आर्थिक बदहाली में कटोरा लेकर दुनिया घूम आया, अब कोई मदद को तैयार नहीं, फिर भी उसकी घरेलू व विदेश नीति ‘कश्मीर’ पर ही आधारित है। कश्मीर सदैव उनकी प्राथमिक सूची में रहा। पाकिस्तान जानता है कि सही क्या है पर उसकी उसमें वृत्ति नहीं है, पाकिस्तान जानता है कि गलत क्या है पर उससे उसकी निवृत्ति नहीं है। कश्मीर को अशांत करने का कोई मौका वह खोना नहीं चाहता। आज के दौर में उठने वाले सवालों में ज्यादातर का जवाब केंद्र सरकार को ही देना है। यह बात भी सही है कि इस मसले को दलगत राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए। ऐसे वक्त में जब कश्मीर में लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बनाने की तैयारियां चल रही हों, वहां शांति स्थापित करना सभी की प्राथमिकता होनी चाहिए। आए दिन की हिंसक घटनाएं आम नागरिकों में भय का माहौल ही बनाती हैं। माना कि रोग पुराना है, लेकिन ठोस प्रयासों के जरिए इसकी जड़ का इलाज होना ही चाहिए। इनमें अपनी सुरक्षा के प्रति भरोसा जगाना सरकार की पहली जिम्मेदारी है। घाटी में सक्रिय आतंकियों के खात्मे में सुरक्षा तंत्र ने काफी कामयाबियां हासिल की हैं। अब जरूरत है खुफिया तंत्र को दूसरी तरह की चुनौतियों का सामना करने को तैयार एवं सक्षम किया जाये। आतंकी संगठनों में नए भर्ती हुए युवाओं और उनके मददगारों की शिनाख्त जरूरी है, ताकि लक्षित हत्याओं के उनके इरादों को पहले ही नाकाम किया जा सके। घाटी में हालात सुधरने के केंद्र सरकार के दावों की सत्यता इसी से परखी जाएगी कि घाटी में अल्पसंख्यक पंडित और प्रवासी कामगार खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं। वास्तव में देखा जाये तो असली लड़ाई कश्मीर में बन्दूक और सन्दूक की है, आतंकवाद और लोकतंत्र की है, अलगाववाद और एकता की है, पाकिस्तान और भारत की है। जब लड़ाई पाकिस्तान और भारत की है तो एक बार फिर चुनावी जंग से पहले मैदानी जंग हो जाने दें।

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