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औरंगजेब का एक बहुत काबिल सेनानायक और फौजदार था, उसका नाम हसन अली था।
हसन अली औरंगजेब की नीच आत्मा का सगा हिस्सा था।
वह उसके जितना ही धर्मांध, अत्याचारी और हिन्दू द्वेष से भरा हुआ था।
यही हसन अली था जिसने औरंगजेब की काफिरों के सभी मन्दिर ध्वस्त कर दिए जाएं —- वाले राजाज्ञा (1669 ईस्वी का राज्यादेश) का अनुपालन कराते हुए देश के भीतर स्थित बहुत से महत्वपूर्ण मन्दिर नष्ट करवाए।
हसन अली ने ही 1670 ईस्वी में गोकुल जाट द्वारा मथुरा के फौजदार अब्दुन नबी को केशवराय मन्दिर तोड़ने की धृष्टता के समय मार डालने के बाद —- मथुरा की फौजदारी संभाल कर गोकुल जाट के महाविप्लव को शान्त किया था, गोकुल जाट और उनके परिवारी जनों को बंदी बनाकर औरंगजेब के समक्ष प्रस्तुत किया था, जिसमें गोकुल जाट को बर्बर बादशाह ने आगरा के किले के सामने 40 टुकड़ों में कटवाकर क्रूर हत्या करवाई थी।
इसी हसन अली ने मथुरा के फौजदार पद पर रहते हुए पूरे ब्रज क्षेत्र का इस्लामीकरण करवाने की औरंगजेबी प्रतिज्ञा का अनुपालन सुनिश्चित करवाने के लिए मथुरा के केशवराय मन्दिर तथा द्वारिकाधीश मन्दिर सहित गोवर्धन पर्वत पर अवस्थित श्रीनाथ मन्दिर का भी विध्वंस करवाया था।
वृंदावन और मथुरा समेत ब्रज क्षेत्र के अधिकांश उपासना स्थल, मठ, देवालय, मन्दिर और तीर्थ केन्द्र ध्वस्त करवा दिए थे।
जब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के साथ औरंगज़ेब का मनमुटाव और बिगाड़ चरम पर पहुंचने लगा तो औरंगजेब ने इस्लामीकरण की मूल प्रतिज्ञा और दारुल हर्ब से दारुल इस्लाम में देश के अधिकाधिक हिस्से को परिवर्तित करने की नीति के तहत मेवाड़ और मारवाड़ अर्थात राजपूताना के दो सबसे प्रतिष्ठित और सर्वोच्च शक्तिसत्तासंपन्न राज्यों —- (साथ ही हिन्दुत्व और सनातन के दुर्जेय केन्द्र के रूप में अवस्थित) का विनाश करने की प्रतिज्ञा की !
मूल उद्देश्य यही था इस दुरात्मा का, लेकिन उदयपुर के महाराणा पर आक्रमण करने के लिए उसे तीन चार तात्कालिक कारण भी उपलब्ध हो गए थे :—-
1) औरंगज़ेब और राणा राजसिंह के सिंहासनारोहण के आरंभिक काल में ही किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती के अप्रतिम सौन्दर्य पर प्रलुब्ध होकर उसे पाने की औरंगजेब की नाजायज चाहत और कोशिश इस मनमुटाव का बहुत बड़ा कारण बनी। अंततोगत्वा राजकुमारी चारुमती के अनुग्रह और कातर याचना संदेश के मर्म को समझते हुए उनके आत्मगौरव, मान सम्मान तथा धर्म की रक्षा करते हुए मेवाड़ के महाराणा ने उनसे विवाह करते हुए बर्बर औरंगजेब की हेठी और अभिमान को धुआं धुआं कर दिया।
2) औरंगजेब ने अपनी कट्टर धार्मिक नीति के तहत हिन्दुओं के सभी देवस्थल और उपासना केन्द्रों को विनष्ट करने का राज्यादेश अप्रैल 1669 ईसवी में जारी किया। इसके क्रम में उसने हिंदुओं के समस्त मंदिर और शिक्षण संस्थान केन्द्र नष्ट करवाने आरम्भ किए तथा देवालयों और तीर्थ स्थानों में हिंदुओं के धर्मसम्बन्धी ग्रंथों का पठनपाठन बंद करवा दिया।
सोमनाथ(काठियावाड़), विश्वनाथ(बनारस), केशवराय(मथुरा) के प्रतिष्ठित मन्दिर भी ध्वस्त करा दिए गए।
भारत में सम्पूर्ण मंदिरों को नष्ट करने के लिए उसने स्थान स्थान पर अधिकारी नियुक्त किए और इन अधिकारियों के कार्यों का सुपरविजन करने के लिए एक उच्चाधिकारी भी तैनात कर दिया।
इस राजाज्ञा के अनुपालन में जब मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर और बल्लभ सम्प्रदाय की गोवर्धन पर्वत पर स्थित ठाकुर जी की मुख्य मूर्ति तोड़ने की तैयारी फौजदार हसन अली ने की तब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने अपने हिंदू शौर्य और धर्म सम्मान के रक्षार्थ आगे बढ़कर इस बर्बर बादशाह के आदेश को धता बताते हुए द्वारकाधीश की मूर्ति को कांकडोली में प्रतिष्ठित कराया और गोवर्धन की श्रीनाथ ठाकुर जी के विग्रह को सीहाड़ (नाथद्वारा) में स्थापित कराया।
उस समय हिन्दू धर्म ध्वज के सबसे बड़े प्रहरी महाराणा राजसिंह ने मुगलिया तुगलिया आदशाह बादशाह को ललकारते हुए कहा था : “मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कटने के बाद ही तू ठाकुरजी के विग्रह पर हाथ लगा पायेगा।”
औरंगजेब महाराणा के इस दुस्साहस से भीतर ही भीतर खार खाए बैठा था।
3) औरंगजेब द्वारा अपनी इस्लामीकरण की जेहादी नीति के क्रम में 2 अप्रैल 1679 ईस्वी के दौरान इस्लामी शासनकाल में 116 वर्ष बाद दुबारा हिंदुओं के ऊपर जजिया कर लगाते हुए उन्हें जिम्मी या द्वितीय कोटि की प्रजा घोषित करवाया। यह अत्यन्त अपमानजनक कर होता था जिसे काफिरों से इस्लाम स्वीकार न करने की स्थिति में धार्मिक दंडादेश के तहत वसूला जाता था।
इस कर के लागू होने पर महाराणा राजसिंह ने उसे ललकारते हुए इस आदेश को वापस लेने के लिए एक पत्र लिखा था और ललकार कर कहा था, बादशाह की हिम्मत हो तो मेवाड़ की राजशाही से यह कर वसूल कर दिखाए।
औरंगजेब इस अवज्ञा भरे प्रत्युत्तर पर कुछ कर तो नहीं सका लेकिन दोनों के बीच एक लम्बे राजनीतिक युद्ध का माहौल बनने लगा।
4) उत्तराधिकार युद्ध में जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह द्वारा शाहजहां की शाही सेना और दाराशिकोह के पक्ष में रहकर औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने और बाद में जसवंतसिंह की राजनीतिक, सैन्य कौशल से भीतर ही भीतर घबराए बादशाह औरंगजेव ने महाराज जसवंतसिंह और उनके पूरे परिवार के प्रति जितनी क्रूरता और अत्याचार भरा बर्ताव किया, उसकी इतिहास में मिसाल ढूंढने पर कहीं मिलेगी!
उसने राठौडो के राज्य को खालसा भूमि घोषित करते हुए महाराज जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी दुधमुंहे बच्चे अजीतसिंह की सुन्नत करानी चाही और इस प्रतिक्रिया में राठौड़ प्रतिरोध के चलते मुगल हरम से सुरक्षित जोधपुर लाए गए नन्हे राजकुमार अजीतसिंह के अभिभावक मेवाड़ महाराणा राजसिंह के बनने पर विकट क्षोभ और आक्रोश व्यक्त किया।
इन चार तात्कालिक कारणों का बहाना बनाकर औरंगजेव ने बड़े काबिल फौजदार हसन अली और तहव्वुर खान, शहजादा मोहम्मद आजम, शहजादा अकबर, खाने जहां, सादुल्ला खां, रुहल्ला खां, इक्का खां आदि योग्य सेनापतियों के नेतृत्व में मुगल फौज को साज सज्जित करके उदयपुर का विध्वंस करने भेजा।
हसन अली ने सैन्य कमान संभालते हुए उदयपुर स्थित सबसे विशाल और विस्तृत मन्दिर “जगदीश मन्दिर” को ध्वस्त करने के साथ ही साथ आसपास के प्रदेशों के कुल 172 मंदिरों का विध्वंस किया।
उसने एक जगह पहुंचकर महाराणा पर हमला किया और बीस ऊंटों पर लादकर लूटी हुई खाद्य सामग्री बादशाह के सम्मुख प्रस्तुत की।
हसन अली द्वारा इतनी बडी मात्रा में मंदिरों का ध्वंस कराए जाने पर बादशाह ने प्रसन्न होकर उसे “बहादुर आलमगीर शाही” का खिताब दिया।
इसके बाद देवारी से चित्तौड़ की ओर प्रस्थान करते हुए खुद नराधम बादशाह ने चित्तौड़ के 63 मन्दिर नष्ट करवाए…
इसकी प्रतिक्रिया और मुगलिया बर्बरता के विरुद्ध मेवाड़ का जनाक्रोश तथा जन प्रतिरोध इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।
यहां से फिर हसन फसन अली ऐसा गिरा गिराकर मारे गए और मुगल फौजों को इस तरह तबाह किया गया तथा विनष्ट देवालयों का जिस अंदाज में महाराणा राजसिंह और उनके सामंतों ने प्रतिशोध लिया, वह मध्यकालीन भारतीय इतिहास के गौरवमय पल हैं।
कुंवर भीमसिंह, राजकुमार जयसिंह, सांवलदास, दयालशाह, राठौड़ गोपीनाथ, रतनसिंह चुंडावत आदि ने मुगलों की फौज को खदेड़ खदेड़ कर पूरे मेवाड़ के भीतर और मालवा, गुजरात, जोधपुर तक मारा।
जिस तरह पावन देवालय और आस्था केन्द्र नष्ट किए गए थे, उसी तरह मस्जिदों को जमींदोज किया गया। मालवा और गुजरात में 800 मस्जिदें छोटी बड़ी मिलाकर भस्मीभूत की गई…
इसके बाद इतिहास के पृष्ठों से हसन अली गायब हो जाते हैं और उनका नाम सुनाई नहीं देता…
बादशाह खुद मेवाड़ से सेना का लाव लश्कर लेकर भागता है और दक्षिण की राह पकड़ता है…
दक्षिण दिशा मतलब —- मृत्यु स्थल की ओर।
और संयोग नहीं यह लोकरूढ़ि या मान्यता —- दक्षिण में ही हिन्दू स्वाधीनता संग्राम के अजस्र प्रतिरोध से टकराते लड़ते झगड़ते यह पातक अल्ला को प्यारा हो गया !
लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमारे इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में राजपूताना के साथ हुए इस तुमुल संघर्ष नाद में हसन फसन धंसन अली सहित तमाम मुगलिया फौजदार और उनकी कारगुजारियो के बढ़े चढ़े वर्णन पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन मेवाड़ और मारवाड़ के इस दुर्जेय पराक्रम का जिक्र कितना कम होता है !!
राणा राजसिंह, उनके दोनों सुयोग्य पुत्रों द्वारा युद्ध में मुगलों की ऐसी तैसी करना, सांवल दास और दयाल शाह द्वारा मुगलिया बादशाह की लुंगी जगह जगह उतार लेना… बेइज्जत होकर बादशाह का मेवाड़ से पलायन करना —– यह सब पढ़ाने में हमें शर्मिंदगी महसूस होती है !
-कुमार शिव