*चिकित्सा : कहाँ भटक गए हम ?*
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि विश्व को ज्ञान देने वाली भारत की प्रतिभाएं तथा अभिभावक मौजूदा दौर में शिक्षा को लेकर दुश्वारियों के दौर से गुजर रहे हैं। देश की हजारों प्रतिभाएं पढ़ाई के नाम पर प्रतिवर्ष विदेशी शिक्षण संस्थानों का रुख कर रही हैं, बल्कि कई छात्र भारत की नागरिकता छोड़ रहे हैं। भले ही भारत की करोड़ों आबादी गरीबी रेखा से नीचे बसर करने को मजबूर है, मगर विदेशों में शिक्षा हासिल करने वाले हजारों भारतीय छात्रों के अभिभावक हर वर्ष करोड़ों रुपए की महंगी फीस अदा करके अमरीका, कनाडा, ऑस्टे्रलिया, ब्रिटेन व न्यूजीलैंड सहित कई अन्य देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। अमरीका, कनाडा व ब्रिटेन शिक्षा के लिए भारतीय छात्रों के लोकप्रिय डेस्टिनेशन बन चुके हैं।
‘शिक्षा एक राष्ट्र की प्रगति का प्रतीक है। यदि आप किसी देश के उन्नयन एवं अवनयन का काल जानना चाहते हैं तो इसे देश की शिक्षा के इतिहास में खोजिए।’ यह कथन स्वामी विवेकानंद का था। ‘जिस शिक्षा में कर्म की शक्ति नहीं, स्वतंत्र रूप से सोचने की बुद्धि नहीं, खतरा उठाने की प्रवृत्ति नहीं, वह विद्या निस्तेज है’, शिक्षा के संदर्भ में यह कथन भारत के प्रख्यात विचारक ‘विनोबा भावे’ का था। कोई भी राष्ट्र अपनी शिक्षा, संस्कृति व परंपराओं पर गर्व महसूस करता है। हमारे मनीषियों द्वारा रचित विश्व की प्रथम पुस्तक ‘ऋग्वेद’ व सबसे बड़ा महाकाव्य ‘महाभारत’, ‘रामायण’, वेद, पुराण जैसे विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ तथा शिक्षा की उत्तम प्रणाली गुरुकुल, मठ व आचार्यों के आश्रम पुष्टि करते हैं कि अनादिकाल से भारत में शिक्षा व्यवस्था का गौरव चरम पर था। सैंकड़ों वर्ष पूर्व तक्षशिला, नालंदा, व सोमपुरा जैसे भारत के विश्वविद्यालयों में कई देशों के छात्रों ने शिक्षा ग्रहण की थी।
भारत को अस्थिर करने वाली जिहादी ताकतों की कुछ देशों में खुलेआम हिमायत हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से अमरीका में पढ़ाई करने वाले भारतीय छात्रों तथा वहां काम करने वाले अन्य भारतीय युवाओं की टारगेट कीलिंग हो रही है। शिक्षा का माहौल तनाव रहित होना चाहिए, परंतु इन देशों में पढ़ाई करने वाली भारतीय प्रतिभाएं नस्लीय हिंसा के भेदभाव का शिकार होकर मानसिक तनाव से गुजर रही हैं। इसके बावजूद भारतीय छात्रों की विदेशी शिक्षण संस्थानों की तरफ कशिश बढ़ रही है। विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले हजारों भारतीय छात्रों के बारे में देश के लोगों को इल्म तब हुआ जब रूस-यूक्रेन की शदीद जंग में फंस चुके हिंदोस्तान के छात्रों ने खुद को बचाने की गुहार लगाई थी। वर्तमान में भारत के ज्यादातर छात्र डॉक्टर बनने की चाहत में विदेशी शिक्षण संस्थानों का रुख कर रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि जब समस्त विश्व चिकित्सा विषय में अनजान था, उस वक्त भारतीय मनीषियों ने चिकित्सा क्षेत्र में कई गौरवमयी कीर्तिमान स्थापित कर दिए थे। आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड सहित कई अन्य देशों के शल्य चिकित्सकों को प्रशिक्षण देने के लिए ‘मेलबॉर्न’ के ‘रॉयल ऑस्टे्रलियन कॉलेज ऑफ सर्जन्स’ में भारतीय महर्षि ‘सुश्रुत’ की प्रतिमा लगाई गई है। आचार्य सुश्रुत द्वारा संस्कृत में रचित शल्य चिकित्सा का वेद कही जाने वाली ‘सुश्रुत संहिता’ का अंग्रेजी में अनुवाद भी उस कालेज में सुरक्षित रखा गया है। सन् 1767 में स्थापित ‘कोलंबिया यूनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर’ इस बात को स्वीकार कर चुका है कि शल्य चिकित्सा के जनक यानी ‘फादर ऑफ सर्जरी’ भारत के आचार्य सुश्रुत ही थे। जाहिर है प्लास्टिक सर्जरी का पितामह भारत है।
ब्रिटेन के डाक्टरों ने सर्जरी करना भारत से ही सीखा । भारत से सर्जरी की महारत हासिल करने वाले ब्रिटेन के डॉक्टरों ने अपने मुल्क में जाकर ‘फेलो ऑफ दि रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन’ नामक संस्था की स्थापना भी की थी। अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड जैसे देश भारत के महान शल्य चिकित्सक आचार्य सुश्रुत की महिमा व महानता को स्वीकार कर चुके हैं कि विश्व में सम्पूर्ण शल्य चिकित्सा की नींव आचार्य सुश्रुत ने ही रखी थी। पशु चिकित्सा पर आधारित विश्व के प्रथम ग्रंथ ‘शालिहोत्र संहिता’ की रचना महर्षि शालिहोत्र ने हजारों वर्ष पूर्व इसी भारतभूमि पर की थी। घोड़ों के प्रजनन के विशेषज्ञ शालिहोत्र ऋषि द्वारा रचित ‘हया आयुर्वेद’, ‘अश्वपरास्ना’ तथा ‘अश्वलक्षण’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सर्जरी के पितामह आचार्य सुश्रुत, तक्षशिला विश्वविद्यालय के छात्र रहे महान आयुर्वेदाचार्य ‘जीवक कुमार भच्च’, आयुर्वेद के मर्मज्ञ ऋषि ‘पुनर्वसु आत्रेय’ व उनके शिष्य आयुर्वेदाचार्य ‘अग्निवेश’ जतूकर्ण, भेलाचार्य तथा हाथियों के प्रबंधन व उपचार पर शोध करने वाले ‘गजशास्त्र’ के रचयिता ‘पालकाप्य मुनि’ व शालिहोत्र जैसे आचार्यों की वैज्ञानिक सोच व चिकित्सा क्षेत्र में योगदान की अमूल्य ज्ञान संपदा को समझने के प्रयास पूरी शिद्दत से नहीं हुए।
भारत की प्राचीन पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद का डंका पूरे विश्व में बज रहा है, मगर मेडिकल विषय के छात्रों के लिए आयुर्वेद के विशारद व ‘फादर ऑफ इंडियन मेडिसन’ ‘महर्षि चरक’ के नाम की शपथ लेने पर देश की सियासी हरारत बढ़ जाती है। यदि दुनिया को शल्य चिकित्सा व आयुर्वेद का ज्ञान देने वाले ‘विश्व गुरु’ भारतवर्ष की प्रतिभाएं मेडिकल विषय की शिक्षा के लिए विदेशों में भटक रही हैं तो मतलब साफ है कि देश की शिक्षा व्यवस्था आचार्य सुश्रुत व महर्षि चरक तथा शालिहोत्र जैसे विद्वान आचार्यों की चिकित्सा की गौरवशाली ज्ञान विरासत को सहजने में नाकाम रही है। विदेशी शिक्षण संस्थानों का अर्थतंत्र भारतीय छात्रों की महंगी फीस पर निर्भर है। चिकित्सा की बेहद महंगी शिक्षा ही चिकित्सा क्षेत्र में महंगे ईलाज का कारण बनी। नतीजतन निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा तथा निजी अस्पतालों में चिकित्सा आम लोगों की पहुंच से दूर हो चुकी है।