-बलबीर पुंज
पाकिस्तान का अगला सेनाध्यक्ष कौन होगा? 29 नवंबर को उसके वर्तमान सेना मुखिया जनरल कमर जावेद बाजवा का दूसरा कार्यकाल समाप्त हो रहा है। मीडिया रिपोर्ट की माने, तो पाकिस्तानी रक्षा मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को जिन नामों की सूची भेजी है, उसमें— लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर, लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा और लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास प्रबल उम्मीदवार हैं। नए सेनाध्यक्ष का शरीफ बंधुओं (नवाज-शहबाज) और इमरान खान के बीच संबंध कैसा होगा? इन प्रश्नों के उत्तरों का पाकिस्तान के भविष्य से सीधा संबंध है। पाकिस्तानी सेना से सीधा टकराने वाले इमरान अगले सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में या तो सरकार-विपक्ष में आम-सहमति होने या इसे चुनाव तक टालने की बात कर रहे है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शरीफ सरकार द्वारा प्रस्तावित विकल्पों में जनरल मुनीर का हर समय नियमों से चलने वाला व्यवहार, इमरान को ‘पसंद’ नहीं है। इसी कारण प्रधानमंत्री रहते हुए इमरान ने मुनीर को पाकिस्तानी खुफिया जांच एजेंसी— आईएसआई के प्रमुख पद से हटा दिया था।
बीते कई अवसरों पर इमरान, पाकिस्तान में आमूलचूल परिवर्तन लाने का आह्वान कर चुके है। उनके द्वारा भारत की प्रशंसा करना— इसका प्रमाण भी है। क्या यह कोई बदलाव का संकेत है? वास्तव में, पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल होने या उसे टालने के सुझाव में इमरान की नीयत और पाकिस्तान की कटु वास्तविकता छिपी है। सच तो यह है कि इमरान किसी बदलाव हेतु नहीं लड़ रहे। वह जानते है कि पाकिस्तान विश्व के उन अपवादों में से एक है, जिसमें देश के पास सेना नहीं, अपितु सेना के पास पूरा देश है। इमरान स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने और दोबारा प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में अपने लिए अनुकूल सेनाध्यक्ष चाहते है।
क्या पाकिस्तान में पसंदीदा सेनाध्यक्ष होना, वहां के राजनीतिज्ञों के लिए हमेशा उपयोगी होता है? 1947 से इस इस्लामी देश का इतिहास बताता है कि उसका सेनाप्रमुख अपने कर्णधार की तुलना अपनी महत्वकांक्षाओं और संस्था के प्रति अधिक वफादार होता है। वर्ष 2016 में जनरल बाजवा को तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने नियुक्त किया था। इसके अगले ही वर्ष जुलाई में नवाज को पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्य ठहराकर प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ कर दिया। कहा जाता है कि इसकी पटकथा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने लिखी थी, क्योंकि जिस जांच समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर शरीफ पर कार्रवाई की गई थी, उसमें आईएसआई और सेना के अधिकारी भी शामिल थे। बात केवल नवाज शरीफ (1999) तक सीमित नहीं है। इस्कंदर मिर्जा (1958) और जुल्फिकार अली भुट्टो (1977) भी सेना के तख्तापलट का स्वाद ले चुके है। लियाकत अली (1951) और बेनजीर भुट्टो (1995) इससे बचने में सफल तो रहे, किंतु कालांतर में अपनी जान से हाथ धो बैठे।
जनरल बाजवा के कार्यकाल में नवाज ही नहीं, इमरान को भी इसी वर्ष अप्रैल में प्रधानमंत्री पद गंवाना पड़ा था। इसमें उन्हें सेना का वैसा प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग प्राप्त नहीं हुआ, जैसा 2018 के चुनाव में मिला था। इसी खुन्नस में वे सेना विरोधी वक्तव्य दे रहे है, जिसका संबंध तथाकथित लोकतांत्रिक हितों की रक्षा या नागरिक-सैन्य असंतुलन को समाप्त करने से जुड़ा न होकर विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत है। पाकिस्तान का हालिया घटनाक्रम इसलिए भी दिलचस्प है, क्योंकि उसके प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इमरान पर देश में गृहयुद्ध भड़काने का आरोप लगाया है। वर्तमान अस्थिरता के दौर में पाकिस्तान में घटनाक्रम कोई भी मोड़ ले सकता है। या तो वहां 1971 की भांति गृहयुद्ध की स्थिति बन सकती है या सेना द्वारा सीधा हस्ताक्षेप हो सकता है या फिर लोकतांत्रिक मुखौटा पहनकर सेना ही देश पर शासन कर सकती है। यह तीनों ही संभावना बराबर की है।
पाकिस्तान में सत्ता से बाहर होने पर बौखलाए इमरान और उनकी पार्टी, सत्तारुढ़ दलों के खिलाफ आक्रमक है। वे 28 अक्टूबर से सरकार विरोधी जुलूस निकाल रहे है। इसी दौरान 3 नवंबर को इमरान पर मोहम्मद नवीद नामक जिहादी ने गोली चला दी। हमलावर इस बात से नाराज था कि इमरान पाकिस्तान को ‘रियासत-ए-मदीना’ बनाने का वादा कर रहे है। वास्तव में, ‘रियासत-ए-मदीना’ को पैगंबर मोहम्मद साहब ने स्थापित था। ऐसे में इमरान प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से स्वयं की तुलना पैगंबर साहब से करके ‘ईशनिंदा’ कर बैठे, जिसकी सजा केवल मौत है। जब इमरान हमले में बच गए, तब नवीद ने अपने प्रयास में असफल होने पर दुख जताया। स्पष्ट है कि इमरान पर खतरा टला नहीं है।
इस प्रकरण पर मुझे मुमताज कादरी का स्मरण होता है, जिसने बतौर सुरक्षाकर्मी, वर्ष 2011 में पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ सलमान तासीर को इसलिए 28 गोलियां मारकर भून दिया था, क्योंकि उन्होंने ईशनिंदा की दोषी ईसाई आसिया बीबी का बचाव किया था। जब कादरी को अदालत में प्रस्तुत किया गया, तब हजारों की भीड़ (लगभग 300 वकील सहित) उसके समर्थन में नारेबाजी कर रही थी।
नवीद या कादरी कोई अपवाद नहीं है— क्योंकि इस्लाम के नाम पर बने इस देश का बड़ा जनमानस मजहबी जुनून में लगभग विक्षिप्त हो चुका है। पाकिस्तान में वर्ष 1967-2021 के बीच 1500 से अधिक ईशनिंदा के मामले दर्ज हुए है, जिसमें कई आरोपियों (मुस्लिम सहित) को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान मजहबी भीड़ ने या तो मौत के घाट उतार दिया या फिर उनसे मारपीट की। हिंसा के साथ हिंदू और ईसाई आदि अल्पसंख्यकों का पाकिस्तान से अस्तित्व मिटाने, अर्थात— मजहबी दायित्व की पूर्ति के लिए भी ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग किया जाता है। पाकिस्तानी संसदीय समिति के अनुसार, ईशनिंदा जनित हिंसा में शामिल 90 प्रतिशत लोगों की आयु 18-30 वर्ष होती है। बात केवल यही तक सीमित नहीं। पाकिस्तान में वर्ष 2001-2018 के बीच सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 4,847 शियाओं को सुन्नी कट्टरपंथियों द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। लगभग 20 लाख अहमदी मुसलमान पाकिस्तान में रहते हैं, जो 1974 में आधिकारिक रूप से गैर-मुस्लिम घोषित होने से पूर्व, बलात् घृणा का शिकार हो रहे है। यह सब पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप है।
पाकिस्तान में शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व और सेना उस समय आमने-सामने हैं, जब उसकी धराशायी आर्थिकी, कमरतोड़ मुद्रास्फीति, व्यापाक बेरोजगारी और मजहबी हिंसा ने आमजन को पहले से संकट में डाला हुआ है। निसंदेह, इस्लामी पाकिस्तान तेजी से रसातल की ओर बढ़ रहा है। सभ्यतागत-वैचारिक द्वंद के कारण वह एक राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ भी नहीं है। फिर भी वहां की सेना, सत्तापक्ष, विपक्ष और व्यापक जनमानस को जो आपस में अबतक एकसूत्र में अबतक पिरोए हुए है, वह उसकी— अपनी मूल सनातन सांस्कृतिक पहचान को समाप्त करने हेतु मध्यपूर्ण-अरब संस्कृति को अपनाने की असफल छटपटाहट है। भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान का जन्म उस घृणा आधारित चिंतन के गर्भ से हुआ है, जो आज भी खंडित सनातन भारत और उसके नैसर्गिक बहुलतावादी-पंथनिरपेक्षी-लोकतांत्रिक चरित्र को मिटाने को आतुर है। पाकिस्तान मात्र कोई देश नहीं, अपितु विषाक्त विचार है। चूंकि किसी भी दर्शन-विचार को भूगौलिक सीमा में बांधना असंभव है, इसलिए खंडित भारत में भी असंख्य भारतीय ऐसे है, जिनके पास पासपोर्ट तो भारत का है, किंतु मानस पाकिस्तानी है। संक्षेप में कहे, विश्व के इस क्षेत्र में केवल भारत-हिंदू विरोध ही पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।