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जातीय जनगणना की राजनीति


अवधेश कुमार
इसमें दो राय नहीं कि जातीय जनगणना 2024 लोकसभा चुनाव में आईएनडीआईए की ओर से एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संपूर्ण गठबंधन से वाहवाही मिल रही है। उनके पास कहने के लिए भी है कि मैंने जो कहा उसे कर दिखाया। यानी जो मैं कर सकता हूं वह सभी राज्य कर सकते हैं और देश भी। पहली नजर में यह तर्क सामान्य तौर पर गले उतरता है कि आरक्षण का आधार जातियां है तो क्यों न देख लिया जाए कि कहां किस जाति की कितनी संख्या है तथा उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थितियां क्या हैं? जातीय जनगणना के पक्ष में सबसे सबल तर्क यही है। बिहार में नीतीश सरकार ने इसके आंकड़े जारी किए हैं तो देश अवश्य देखेगा कि इनका इस्तेमाल वहां किस तरीके से होता है। बिहार सरकार कह रही है कि सरकार की नीतियों में इन आंकड़ों की वास्तविकता दिखाई देगी। इसके मायने क्या हैं?
क्या गणना में जिस जाति की जितनी संख्या बताई गई है उसके अनुसार ही उन्हें आरक्षण एवं अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जाएगा? या फिर उसका उपयोग अलग तरीके से किया जाएगा?
सच यही है कि इन पर बिहार सरकार की ओर से कुछ नहीं कहा गया है। कारण, जब आपकी सोच में व्यापक सामाजिक हित की जगह संकीर्ण राजनीति हो तो आप दूरगामी दृष्टि से विचार नहीं कर सकते। जातीय जनगणना होनी चाहिए, नहीं होनी चाहिए इसको छोड़ भी दें तो इसका उद्देश्य और क्रियान्वयन की परवर्ती रूपरेखा सामने होनी चाहिए थी। यह तभी संभव होता जब सामाजिक न्याय के वास्तविक सिद्धांत की सोच से काम किया जाता। आज यह मानने में कोई समस्या नहीं है कि नीतीश जी ने जब भाजपा से अलग होने का मन बना लिया तभी से उन्होंने जातीय जनगणना की आवाज उठाई अन्यथा इसके पूर्व उनका जोर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने तक सीमित था। क्या इसका कारण यह था कि संपूर्ण भारत में हिंदुओं के जागरण के कारण लोग हिंदुत्व राजनीति की ओर आकर्षित हुये हैं? चुनावी सर्वेक्षण प्रमाणित करते हैं कि जहां भी भाजपा का जनाधार है वहां कुछेक स्थानों को छोड़ दें तो पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों का सर्वाधिक मत इसके खाते जाता है।
वास्तव में लगभग 100 वर्ष से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य तथा अन्य हिंदू संगठनों की अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रियता से पूरे भारत का माहौल बदला है। हालांकि संघ भारत के दीर्घकालीन भविष्य के लिए काम करता दिखता है। राजनीति में भाजपा किसी हद तक इसको अभिव्यक्त कर रही है तो स्वाभाविक ही वोटों का बड़ा अंश उसी के खाते जाएगा। देश का दुर्भाग्य है कि सामाजिक न्याय और उसके एक पहलू आरक्षण को राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बना लेने के कारण उसका वास्तविक उपयोग ,परिणाम और समीक्षा की विवेकपूर्ण गुंजाइश न के बराबर रह गई है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि पिछड़ों- दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता और पार्टियां इसका उत्तर नहीं दे सकतीं कि उन्होंने अपने लंबे शासन काल में अब तक क्या किया? केंद्र में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने के बाद 1990 से लगातार लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार बिहार की सत्ता शीर्ष पर हैं। आरंभ के 15 वर्ष लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी, उसके बाद नीतीश कुमार, कुछ काल के लिए जीतन राम मांझी और फिर नीतीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री हैं। ये पिछड़ों- दलितों के मसीहा हैं तो इन तीन दशक से ज्यादा समय में बिहार की दुर्दशा का अंत क्यों नहीं हुआ? बिहार इतना पिछड़ा क्यों है? जीएसटी कर संग्रह में बिहार का स्थान नकारात्मक है। विकास के अन्य मापदंडों विकास दर, गरीबी, प्रति व्यक्ति आय, रोजगार सृजन , निवेश‌ आदि में भी बिहार फिसड्डी राज्यों की सूची में ही पड़ा हुआ है? । इसके विपरीत लंबे समय तक बिहार की दशा का ही शिकार उत्तर प्रदेश ऊंचाइयां छू रहा है। समय है कि बिहार के लोगों को जातीय सीमाओं से परे उठकर इन नेताओं से पूछना चाहिए कि आप सामाजिक न्याय के पुरोधा हैं तो संपूर्ण बिहार आपके ही शासन के परिणामों में अन्याय का शिकार क्यों दिखता है?
लालू जी के शासनकाल का सच यही है कि बिहार के लोग प्रदेश से बाहर स्वयं को बिहारी कहने में शर्म महसूस करते थे। अशासन और कुशासन का उससे दर्दनाक उदाहरण भारत में दूसरा नहीं? नीतीश जी बड़ी उम्मीद लेकर आए और आरंभ के पांच वर्ष तक उन्होंने सुशासन दिया भी। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और अदूरदर्शिता के कारण वे उस पार्टी के साथ गए जिस पर उन्होंने ही कुशासन और जंगल राज का आरोप लगाया था। तेजस्वी प्रसाद यादव के नेतृत्व में राजद बदली हुई पार्टी है तो वह व्यवहार में दिखना चाहिए। बिहार के सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक उन्नयन की दृष्टि से उम्मीद पैदा करने वाले कदम उठाते हुए दिखें तो विश्वास हो कि वाकई ऐसा है। गणना के आंकड़ों के अनुसार जिन जातियों , परिवारों को आरक्षण का लाभ ज्यादा मिला है उन्हें अलग करके जो वंचित हैं उन तक पहुंचाने की नीति बनाएं, क्रीमी लेयर का कठोरता से पालन हो तो माना जाएगा कि उनका उद्देश्य विवेकपूर्ण था। गणना की इतनी बड़ी कवायद के बावजूद आरक्षण एवं अन्य योजनाएं पहले की तरह ही जारी रहती हैं तो इसे क्या कहा जाएगा? समस्या यह है कि आंकड़ों में अनेक जातियों की संख्या पर प्रश्न उठ रहे हैं। इसके अनुसार 14.27 प्रतिशत यादव एवं 17 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान ही लालू जी और तेजस्वी यादव के एमवाई समीकरण को पूरा कर सत्ता तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त है। नीतीश कुमार की कुर्मी जाति 3 प्रतिशत से नीचे है। जातीय समीकरणों के अनुसार बिहार में लंबे समय तक लालू जी के परिवार के नेतृत्व में ही बिहार की सत्ता रहनी चाहिए। अगड़ी जातियों में ब्राह्मणों ,भूमिहारों और राजपूतों सबकी संख्या इतनी कम कर दी गई है कि जातीय समीकरणों की राजनीति में उनकी हैसियत ही नहीं रहेगी। गणना के बाद बिहार में व्यापक हलचल है और अलग-अलग जातियों के अंदर असंतोष है। एक बड़ा समूह गणना रिपोर्ट को सामाजिक स्थिति की सच्चाई नहीं मानेगा तो इसकी विश्वसनीयता क्या रहेगी? सरकारी स्तर पर आप इसे स्वीकार कर लीजिए,जमीन पर लोग इसे मैनिपुलेटेड मानेंगे। स्वाभाविक ही उसका राजनीति पर भी व्यापक असर होगा। संभव है बिहार की राजनीति में एमवाय समीकरण के विरुद्ध नए जातीय समीकरण खड़े हों। ध्यान रखिए, कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने 2011 में आम जनगणना के समानांतर ही ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत जातियों की गणना कराई थी जिसे आर्थिक सामाजिक गणना कहा गया था। उसने उसे जारी नहीं किया। सिद्धारमैया की पूर्व सरकार ने कर्नाटक में गणना कराई और वैसा ही राजस्थान में हुआ। कांग्रेस ने इन्हें जारी नहीं किया। यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि आपने तब जारी नहीं किया और आज क्यों अपरिहार्य मान रहे हैं? सच यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने यूपीए की गणना को जारी करने का फैसला किया किंतु इसके लिए बनी समिति ने काफी परिश्रम के बाद हाथ खड़े कर दिए क्योंकि लाखों की संख्या में जाती और गोत्र थे। इनमें राष्ट्रीय स्तर पर अनेक जातियों, गोत्रों की एक संख्या बताना संभव ही नहीं। हिंदुत्व की बात करने वाली शिवसेना के उद्धव ठाकरे समूह ने सुप्रीम कोर्ट में जातीय जनगणना के लिए दरवाजा खटखटाया और केंद्र को कहना पड़ा कि यह व्यावहारिक नहीं है। यही वास्तविकता है लेकिन राजनीति जो न कराये। आईएनडीआईए को नहीं भूलना चाहिए कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अयोध्या आंदोलन के कारण भाजपा के पक्ष में हिंदुओं के हो रहे ध्रुवीकरण की काट का भी ध्यान रखते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। उम्मीद की गई थी कि इससे पिछड़े दलित आदिवासी जातियां भाजपा के साथ नहीं जाएगी। अगले चुनाव में जनता दल का ही सफाई हो गया और भाजपा ने 1991 में 121 सीटों के साथ अपने चुनावी इतिहास का रिकॉर्ड बना दिया। इसलिए जातीय गणना को लेकर राजनीति लक्ष्य साधने की कामना करने वाले ठहरकर ठंडे दिमाग से विचार करें।

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