कितनी अजीब बात है एक तरफ़ देश में गेहूं का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है और दूसरी तरफ़ सरकार ने प्रचुर आपूर्ति के बीच उसकी स्टॉक लिमिट तय करने का निर्णय सुना दिया है । यह निर्णय इस बात का साफ़ संकेत है कि देश में खाद्य अर्थव्यवस्था भारी कुप्रबंधन की शिकार है। साफ़ समझ आ रहा है कि रबी का मार्केटिंग सीजन अभी समाप्त नहीं हुआ है और किसानों के पास अभी भी गेहूं का ऐसा भंडार मौजूद है जो बिका नहीं है। इस लिहाज से भी यह कदम न केवल गलत बल्कि किसान विरोधी ही कहा जाएगा ।
और ख़ास बात यह है कि यह निर्णय ऐसे समय आया है जब खाद्य मुद्रास्फीति 2.91 प्रतिशत के साथ 18 महीने के निचले स्तर पर है और सकल खुदरा मुद्रास्फीति 4.25 प्रतिशत के साथ 25 माह के निचले स्तर पर है। मोटे तौर पर खाद्य और ईंधन कीमतों में नरमी की बदौलत हुआ है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि गेहूं के मामले में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर लंबी अवधि में अपेक्षाकृत ऊंची बनी रही है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि समूचे बाजार को प्रभावित करने वाला कदम उठाया जाए, खासतौर पर यह देखते हुए कि सरकार विभिन्न कल्याण योजनाओं के अधीन 81 करोड़ लोगों को नि:शुल्क अनाज उपलब्ध करा रही है।
इस तरह की अतिरंजित प्रतिक्रिया कई बार बाजार में अनावश्यक तंगी के हालात पैदा करके कई बार अनपेक्षित परिणाम भी दे सकती है जो किसानों, व्यापारियों, प्रसंस्करण करने वालों और उपभोक्ताओं सभी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है।यह कदम इसलिए भी अजीब है कि इस मुख्य अनाज के मुक्त व्यापार को रोकने के साथ-साथ सरकार ने ई-नीलामी के जरिये अपने भंडार से 15 लाख टन गेहूं को बाजार में उतारने का इरादा भी जाहिर किया है। दिलचस्प बात है कि यह अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर बेचा जाएगा।
देश की खाद्य प्रबंधन व्यवस्था का मुख्य अवगुण है प्रशासनिक बहुलता। खाद्यान्न उत्पादन और उनका समर्थन मूल्य तय करना जहां कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी है वहीं सरकारी खरीद, भंडारण और राज्यों को आवंटन का काम खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इसके अलावा उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से आबादी के दो तिहाई हिस्से को अनाज वितरण का काम राज्य सरकारें करती हैं। ये सभी काम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और मांग-आपूर्ति के गणित को प्रभावित करते हैं। इनका असर खुले बाजार में अनाज की कीमत पर भी पड़ता है जो सरकार के नीतिगत निर्णयों का आधार बनता है।
सरकार को मौजूदा मामले में जिस कारक पर सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है वह है हाल में समाप्त रबी सत्र में गेहूं के उत्पादन का सरकारी का आकलन। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 में गेहूं का उत्पादन 11.27 करोड़ टन के रिकॉर्ड स्तर पर रहा जो पिछले वर्ष से 50 लाख टन अधिक है। जबकि पिछले वर्ष हम बिना घरेलू आपूर्ति और कीमतों को प्रभावित किए 70 लाख टन गेहूं का निर्यात करने में सफल रहे थे।
अनाज कारोबारियों का मानना है कि वास्तविक उत्पादन 10 से 10.3 करोड़ टन के बीच रहा है। अगर गेहूं का उत्पादन सरकार के आंकड़ों के अनुरूप इतना अधिक रहा है और मई 2022 में निर्यात रोक दिया गया था तो चिंता की कोई बात नहीं होनी चाहिए। गेहूं कोई ऐसी जिंस नहीं है जिसे बिना नुकसान या गुणवत्ता खराब हुए बिना लंबे समय तक भंडारित किया जा सके।
परिस्थिति चाहे जो भी हो अगर कीमतों में इजाफा होता है तो सरकार के पास स्टॉक होल्डिंग कम करने की वजह होती है। उस स्थिति में व्यापारियों का रुझान स्टॉक निकालकर मुनाफा कमाने का रहता है, न कि भंडार बनाए रखने का। भंडारण पर लगाम लगाने से कोई लाभ नहीं होगा। ऐसे में बेहतर यही होगा कि सरकार अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे और खाद्यान्न बाजार से अनावश्यक छेड़छाड़ न करे।