आर.के. सिन्हा
हर साल जनवरी का महीने आते ही देश में गणतंत्र दिवस की तैयारियां अपने चरम पर पहुंच जाती हैं। राजधानी दिल्ली में तो गणतंत्र दिवस की तैयारियों बाकी जगहों से अधिक बड़े स्तर पर होती हैं क्योंकि राजधानी दिल्ली में ही गणतंत्र दिवस परेड निकलती है। उस परेड का हिस्सा वे बालवीर भी होते हैं, जिन्हें देश उनके साहस, सूझबूझ और शौर्य के लिए सम्मानित कर रहा होता है। वे जब राष्ट्रपति जी को सलामी देते हुए आगे बढ़ते हैं, तो कर्तव्यपथ (पहले राजपथ) में उपस्थित जनसमूह उनका हर्षध्वनि से स्वागत करता है। गणतंत्र दिवस परेड का 1959 से हिस्सा हैं बालवीर पुरस्कार विजेता। यह कुछ साल से खुली जीप में निकलने लगे हैं। हालांकि लंबे समय तक यह हाथियों पर सवार होते थे। पर मेनका गांधी के विरोध के बाद इन्हें हाथियों पर बैठाने की परंपरा को रोक दिया गया।
बालवीर गणतंत्र दिवस परेड से दस दिन पहले राजधानी में आकर परेड की रिहर्सल में शामिल होते हैं। इसके अलावा, यह दोपहर और शाम को कभी राष्ट्रपति कभी, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल वायुसेना नौसेना और थलसेनाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलते हैं। कभी लालकिला, पुरानाकिला, कुतुब मीनार, हुमायूँ का मकबरा जैसी ऐतिहासिक इमारतें और कभी फन एंड फूड विलेज जैसे मनोरंजक स्थल घूमते हैं। इन्हें राजधानी के फन एंड फूड विलेज के संस्थापक और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी सरदार सेवा सिंह नामधारी बहुत सारे उपहार देते थे। उनके ना रहने के बाद भी बालवीरों का वहां सम्मानित किया जाता है।
गणतंत्र दिवस से कुछ दिन पहले तक तो यह बालवीर खबरों में रहते हैं। यह अपने इंटरव्यू देते हैं और फिर यह ओझल हो जाते हैं। यह स्थिति कोई आदर्श नहीं मानी जा सकती। कोशिश तो ऐसी होनी चाहिए कि जिन्हें बालवीर पुरस्कार मिला, उन्हें उनके राज्यों की सरकारें जीवन में आगे बढ़ने के हर संभव अवसर दें। हमें पुरस्कार सांकेतिक रूप से नहीं देने चाहिए। ईमानदार कोशिश होनी चाहिए ताकि बालवीरों को बेहतर शिक्षा के अवसर मिलें। आमतौर पर इनका संबंध देश के सुदूर इलाकों में रहने वाले निर्धन परिवारों से ही होता है। इन्हें हर संभव प्रोत्साहन की दरकार होती है। यह सब देश के नौनिहाल होते हैं। इनके प्रति ठंडा रूख रखना गलत है।
अब तक विभिन्न राज्यों से करीब एक हजार से भी अधिक बच्चों को राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है। वर्ष 2018 के बाद से भारत सरकार का बाल विकास मंत्रालय स्वयं इन बच्चों का चयन करता है अब यह राष्ट्रीय पुरस्कार वीरता श्रेणी के अतिरिक्त खेल, मनोरंजन, विज्ञान अनुसंधान, आदि अन्य अनेक श्रेणियों में भी बाल प्रतिभाओं को दिए जाने लगे हैं।
अब देश में कितने लोगों को याद है कि पहला बालवीर पुरस्कार हरीश मेहरा नाम के बालक को मिला था। अब हरीश मेहरा करीब 80 साल के बुजुर्ग हो गए हैं। वे दिल्ली में ही रहते हैं। उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक बड़े हादसे का शिकार होने से बचाया था। वह तारीख थी 2 अक्तूबर,1957। स्थान था दिल्ली का रामलीला मैदान। शाम के सात बजे थे। उस दिन हरीश मेहरा राजधानी के रामलीला मैदान में चल रहे एक कार्यक्रम के दौरान वलंटियर की ड्यूटी दे रहे थे। वीआईपी मेहमानों के लिए आरक्षित कुर्सियों पर पंडित नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, केन्द्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम वगैरह भी उपस्थित थे। तब ही उस शामियाने के ऊपर तेजी से आग की लपटें फैलने लगीं जिधर तमाम नामवर हस्तिय़ां बैठीं थीं। वे तुरंत 20 फीट ऊंचे खंभे के सहारे उस जगह पर चढ़ने लगे जिधर आग लगी थी। उनके पास स्काउट का चाकू भी था। जिधर से आग फैल रही थी, वहां पर पहुंचकर उन्होंने उस बिजली की तार को अपने चाकू से काट डाला। इस सारी प्रक्रिया को अंजाम देने में मात्र पांच मिनट का वक्त लगा। उस शामियाने के नीचे बैठे तमाम आम और खास लोगों ने हरीश मेहरा के अदम्य साहस और सूझबूझ को देखा। पर इस दौरान उनके दोनों हाथ बुरी तरह से झुलस गए। उन्हें राजधानी के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। अगले दिन अस्पताल में उनका हालचाल जानने के लिए बाबू जगजीवन राम स्वयं आए। हरीश मेहरा को उनकी इस बहादुरी के लिए बालबीर सम्मान मिला। वे 26 जनवरी,1959 को गणतंत्र दिवस परेड का हिस्सा बने। उनसे पहले यह सम्मान किसी को नहीं मिला था। उसके बाद उन्हें किसी ने याद नहीं रखा। वे सारी उम्र एक सरकारी विभाग में क्लर्की करते रहे। यह सारी स्थितियां हमारी व्यवस्था की काहिली को ही दिखाती हैं। 1959 से अब तक कोई बहुत साल गुजरे नहीं हैं कि हम बालवीरों का कोई डाटा ना बना सके या उन तक ना पहुंच सके। पर लगता यह है कि बालवीरों को 26 जनवरी को सम्मानित करने के बाद हमारे पास उनके लिए कोई योजना नहीं होती। हरीश मेहरा के बाद राजधानी के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग( राउज एवेन्यू) पर स्थित सर्वोदय स्कूल के सातवीं कक्षा के छात्र फकीरचंद गुप्ता को भी बालवीर पुरस्कार मिला। उनकी सूझबूझ के चलते एक बड़ा रेल हादसा टल गया। वह फरवरी महीने की 28 तारीख थी और साल था 1959। सुबह स्कूल आते समय फकीरचंद गुप्ता ने रेलवे लाइन के साथ हरकत करते कुछ लोगो को देखा, वे पटरी काट रहे थे। अरे कुछ देर बाद तो इस पटरी पर ट्रेन आने वाली है बड़ी दुर्घटना हो सकती है। इस स्कूल से सटी है रेल लाइन।फकीरचंद को आशंका हुई तो उन्होंने दौड़कर यह जानकारी अपने स्कूल के पास खड़े पुलिस कर्मियों को दी। पुलिस ने आकर उन बदमाशों को पकड़ लिया। जाहिर है, फकीरचंद गुप्ता की वजह से बहुत बड़ी दुर्घटना टल गई। उन्हें भी राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया। वे गणतंत्र दिवस परेड का हिस्सा भी बने। पर, उनके बारे में किसी को कोई खबर नहीं है। मेहरा और फकीरचंद के मामले तो पुराने हो गए, संबंधित विभागों के पास कुछ दशक पहले जिन्हें बालवीर पुरस्कार मिले हैं, उनके संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है। बेशक, यह अफसोसजनक स्थिति बदलनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)।