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डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान

23 जून 1953 सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान

बंगाल से लेकर कश्मीर तक राष्ट्र रक्षा आदोलनों की लंबी श्रृंखला

–रमेश शर्मा

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्राँतिकारी विचारक डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 23 जुलाई 1901 को बंगाल के अति प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । उनके पिता आशुतोष मुखर्जी सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उन्हे अंग्रेजों ने “सर” की उपाधि से सम्मानित किया था । श्यामाप्रसाद जी की अधिकांश शिक्षा कलकत्ता में ही हुई । उन्होंने 1917 में मैट्रिक एवं 1921 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की । 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करके वे विदेश चले गये और 1926 में लंदन से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कीं। वे मात्र 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इतनी कम आयु में कुलपति बनने वाले वे भारत के पहले व्यक्ति बने । एक प्रखर वक्ता, उच्च कोटि के विचारक और शिक्षाविद् के रूप में उनकी ख्याति भारत भर में हो गई।
उन दिनों बंगाल में दो प्रकार का वातावरण बन रहा था । एक तो विभाजनकारी साम्प्रदायिक शक्तियाँ जोर पकड़ रहीं थीं जिनके सिर पर अंग्रेजों का हाथ था । दूसरे भारतीय को अंग्रेजों से मुक्ति का आंदोलन तेज हो रहा था । डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी शाँत न रह सके । उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली और स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने लगे । वे चार वर्ष के लिये विधायक भी बने । किन्तु वे चाहते थे कि संघर्ष अंग्रेजों के साथ साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ भी संघर्ष किया जाना चाहिए। इस बात पर कांग्रेस से मतभेद हुये और उन्होंने त्यागपत्र दे दिया । डॉ॰ मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक थे। उन्होने एक नया राजनैतिक समूह प्रगतिशील गठबन्धन तैयार किया और विधायक बने । इस गठबंधन सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। तभी सावरकर जी के राष्ट्रवाद दर्शन से प्रभावित हुये उन्हे लगा कि मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति से मुकाबला करने के लिये बुद्धिजीवी समाज को जाग्रत और संगठित करना होगा । इस विचार से वे हिन्दू महासभा में सम्मिलित हो गये ।
मुस्लिम लीग ने बंगाल का वातावरण पूरी तरह दूषित कर दिया था। बंगाल के हिन्दुओं में एक भय का वातावरण बन रहा रहा था । उन्होंने मुस्लिम लीग के बंगाल को विभाजित करने के प्रयासों को नाकाम करने का संकल्प लिया और जन जागरण में जुट गये । 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ हुआ । यह आव्हान गाँधीजी का था । यद्यपि डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी कांग्रेस में नहीं थे फिर भी उन्होंने आंदोलन में भाग लिया उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया । रिहाई के बाद वे पुनः जन जागरण और, बंगाल का विभाजन रोकने के अभियान में जुट गये । डॉ॰ मुखर्जी अपनी सभाओं में यह बात समझाने का प्रयास कर रहे थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। धर्म व्यक्ति का निजीत्व है इसके आधार पर भारत का विभाजन कैसे हो सकता है । वे मानते थे कि विभाजन की मानसिकता कुछ लोगों के स्वार्थी मस्तिष्क की उपज है जिसे अंग्रेज प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। कितु बात न बनी। अंग्रेज जाते जाते भारत को विभाजित करने गये ।
अंततः भारत स्वतंत्र हुआ। पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनीं। नेहरू जी ने डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को मंत्रीमंडल में स्थान दिया । 1951 में नया राजनैतिक दल भारतीय जनसंघ अस्तित्व में आया । डाक्टर मुखर्जी भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने । पर डाक्टर मुखर्जी साम्प्रदायिक आधार पर कश्मीर में अलगाववादियों को विशेषाधिकार देने के विरुद्ध थे । उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और कश्मीर जाकर आंदोलन की घोषणा कर दी । डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का एकात्म अंग मानते थे । वे कहते थे कि धारा 370 से अलगाव बढ़ेगा । संसद में अपने भाषण में उन्होंनें धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। उन्होंने संसद के बाहर देश व्यापी आंदोलन की घोषणा की और अगस्त 1952 में जम्मू कश्मीर की विशाल रैली में अपना यह संकल्प दोहराया कि ”या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा”। डॉ. मुखर्जी अपने संकल्प को पूरा करने के लिये 1953 में जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े । उन्होंने नारा दिया था “एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान- नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे” । सरकार ने उन्हे कश्मीर जाने से रोकना चाहा । उन्हें कश्मीर की सीमा पर गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी। जेल में उनकी मृत्यु के समाचार ने देश को हिलाकर रख दिया । यद्यपि तत्कालीन सरकार ने उनकी इस रहस्यमय मृत्यु की जाँच कराने से इंकार कर दिया किन्तु देश में जो व्यापक प्रतिक्रिया हुये उससे झलक कर और कश्मीर में प्रवेश के लिये परमिट सिस्टम समाप्त कर दिया । इस प्रकार राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये उनका बलिदान हुआ ।

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