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संघ का मूल विचार स्पष्ट है, वह है हिन्दू राष्ट्र को समृद्ध करना

प्रो. कुसुमलता केडिया

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हिन्दुत्व को सशक्त और समृद्ध बनाये रखने के लिये परमपूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने की थी। समस्त हिन्दू ज्ञान परंपरा, शौर्य परंपरा, समृद्धि परंपरा और शिल्प परंपरा की स्मृति को जीवंत रखते हुये उसकी धारावाहिकता सतत प्रशस्त रखना उसका लक्ष्य है और हिन्दू राष्ट्र ही उसका उपास्य और साध्य है। 

 आद्य सरसंघचालक और द्वितीय सरसंघचालक के ही चित्र संघ के सभी महत्वपूर्ण आयोजनों में सम्मुख रखे जाते हैं। इन दो के ही विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूल विचार हैं। पूज्य आद्य सरसंघचालक ने कभी कोई पुस्तक नहीं लिखी और उनके जीवनकाल में उनके वक्तव्यों का भी प्रकाशन संकलित होकर सामने नहीं आया। अतः उनके विषय में श्री ना.ह.पालकर जी द्वारा लिखित जीवनी ही मूल प्रमाण है। परमपूजनीय गुरूजी के विचारों का संकलन ‘बंच ऑफ थॉट’ (विचार नवनीत) उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हुआ था। अतः वह सम्पूर्ण पुस्तक और ‘वी: अवर नेशनहुड डिफाइंड’ पुस्तक – ये दोनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दर्शन है। इस दर्शन के पोषण के लिये ही हिन्दू समाज ने संघ को आशीर्वाद दिया और अपने मेधावी बेटों को राष्ट्रभावना के प्रचार के लिये समर्पित कर दिया। बाद में इसके ही पोषण के लिये राष्ट्र सेविका समिति का भी गठन हुआ और हिन्दू समाज की सदाचारिणी, तेजस्विनी, राष्ट्रभक्त युवतियों ने उसके लिये जीवन समर्पित किया है। हिन्दू समाज के आशीर्वाद से ही संघ परिवार के पचासों आनुषंगिक संगठन भी व्यापक हुये हैं। 

 अतः संघ हिन्दू समाज की थाती है। पूजनीय डॉक्टर साहब और पूजनीय गुरूजी के विचार ही संघ के मूल विचार हैं। संघ के किसी भी पदाधिकारी को इन विचारों के साथ छल या घात या घालमेल करने का कोई भी अधिकार नहीं है। क्योंकि जब तक वे संघ के पदाधिकारी हैं, उनकी मूल निष्ठा मूल विचार के प्रति ही होनी चाहिये। अपनी बुद्धि से संगठन को सत्ता सम्पन्न बनाने के लिये ही सही, घालमेल का कोई अधिकार किसी को नहीं है। एक मतवाद के रूप में तो उसे पल्लवित होने का भी अधिकार नहीं है। यह बात परम पूजनीय गुरूजी स्वयं बार-बार कह चुके हैं और विचार नवनीत में यह प्रकाशित है। 

 भगवा ध्वज को गुरू स्थान पर पूज्य बनाने का भी यही अर्थ है कि ज्ञान विज्ञान, शौर्य और वीरता, दुष्ट दमन और शत्रुसंहार, ऐश्वर्य और वैभव की अनंत परंपरा को ही पूजा जाना और उसकी ही उपासना होनी है। कोई व्यक्ति या पद राष्ट्र के गुरू का स्थान नहीं ले सकता। क्योंकि परमपिता परमेश्वर, भगवान विष्णु, भगवान शिव, जगदम्बा, भगवान श्रीराम और योगेश्वर श्रीकृष्ण ही परम गुरू हैं। उनका स्थान लेने  की इच्छा भी पाप है और अधर्म है, नास्तिकता है। वेद ही धर्म का मूल हैं। वे ही परमपूज्य हैं। मंत्रों का अनुवाद असंभव है। केवल कम विकसित लोगों के लिये अधिकारी विद्वान द्वारा करूणापूर्वक उनके रहस्यों और अर्थों का उपदेश किया जा सकता है। वह अनुवाद नहीं है। वह उपदेश है। वह स्वयं में प्रमाण नहीं है और स्वयं ही बोध-रूप नहीं है। वह बोध में सहायक है। अनधिकारी को अनुवाद आदि की उद्दंडता की कोई अनुमति नहीं है। वैसा प्रयास करने वाले की भर्त्सना होनी चाहिये, न कि उसको आगे बढ़ाने में सहयोग। 

-प्रो. कुसुमलता केडिया

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