Shadow

लोकतंत्र के लिये खतरा है मुफ्तखोरी की राजनीतिक

लोकतंत्र के लिये खतरा है मुफ्तखोरी की राजनीतिक
– ललित गर्ग-

गुजरात के दिसम्बर-2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव प्रचार में आम आदमी पार्टी ने ‘रेवड़ी कल्चर’ का सहारा लिया तो राजनीतिक हलकों में यह विषय एक बार फिर चर्चा में आ गया। इन दिनों उच्चतम न्यायालय से लेकर राजनीति क्षेत्रों में ‘रेवड़ी कल्चर’ को लेकर व्यापक चर्चा आम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुक्त की संस्कृति पर तीखे प्रहार करते रहे हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त उपहार बांटने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है, खासकर तब जब चुनाव नजदीक हों। ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने का हथियार हैं। यह एक राजनीतिक विसंगति एवं विडम्बना है जिसे कल्याणकारी योजना का नाम देकर राजनीतिक लाभ  की रोटियां सेंकी जा रही है। यह तय करना कोई मुश्किल काम नहीं है कि कौनसी कल्याणकारी योजना है और कौनसी मुफ्तखोरी यानी ‘रेवड़ी कल्चर’ की, परंतु राजनीतिक मजबूरी इसे चुनौतीपूर्ण बना देती है। भारत जैसे विकासशील देश के लिये यह मुक्त संस्कृति एक अभिशाप बनती जा रही है।
मुफ्त ‘रेवड़ी’ व कल्याणकारी योजनाओं में संतुलन कायम करना आवश्यक है, परंतु वोट खिसकने के डर से राजनीतिक दल इस बारे में मौन धारण किये रहते हैं, बल्कि न चाहते हुए भी इसे प्रोत्साहन भी देते हैं। फ्रीबीज’ या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने एवं राजनीतिक धरातल मजबूत करने का हथियार हैं। मुफ्त उपहार के मामले में कोई भी देश पीछे नहीं है। ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडन, संयुक्त अरब अमीरात, बांग्लादेश, मलेशिया, कनाडा, अंगोला, कीनिया, कांगो, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया सहित अनेक देश इस दौड़ में शामिल हैं। विकसित देश जहां अपनी जीडीपी का 0.5 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक लोककल्याण योजनाओं में खर्च करते हैं, तो विकासशील देश जीडीपी का 3 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक फ्रीबीज के नाम पर खर्च कर देते हैं। भारत में अब जब उच्चतम न्यायालय में यह मुद्दा विचाराधीन है, तो संभावना है कि सरकार पर अनावश्यक आर्थिक भार डालने वाली घोषणाओं पर नियंत्रण को लेकर कोई राह भारत ही दुनिया को दिखाए।
भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों अपने चुनावी एवं गैर-चुनावी संबोधनों में मुफ्त संस्कृति को लेकर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि यह आधारभूत संरचना के विकास में अवरोध है। इसे ‘शॉर्टकट’ बताकर इसके खतरे से आगाह किया और मुफ्त संस्कृति पर बहस को आगे बढ़ाया। इस बीच उच्चतम न्यायालय में इस सम्बंध में जो जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं, उनकी सुनवाई करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमना ने तीन जजों की पीठ को यह मामला सौंपते हुए कहा था कि, ‘इस तरह से फ्रीबीज बांटना सरकार के लिए ऐसी परिस्थिति खड़ी कर सकता है कि जहां सरकारी खजाना खाली होने की वजह से जनता को आम सुविधाओं से वंचित होना पड़े। चुनाव के समय और सरकार में आने के बाद गरीब कल्याण के नाम पर रेवड़ी बांटने का काम सरकार और राजनीतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री गरीब कल्याण के नाम पर सरकारें अपनी योजनाओं को ढिंढोरा पीटती है। मुफ्त अनाज, मुफ्त मकान, मुफ्त बिजली जैसी रेवड़ी कल्चर की योजना इसी का एक अनिवार्य हिस्सा है। गरीब कल्याण की भावना के साथ काम करने वाली सरकार गरीब और जरूरतमंदों को सब्सिडी के साथ अनेक सुविधाएं उपलब्ध कराती है इसमें सरकारी अस्पताल में सस्ता इलाज, स्कूलों में मुफ्त शिक्षा और मिडडे मील के साथ अन्य कई सुविधाएं शामिल हैं।
आर्थिक अर्थों में मुफ्त के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की जरूरत है। सब्सिडी और मुफ्त में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी जरूरतमंदों को मिलने वाले उचित और एक वर्ग विशेष को दिए जाने वाला लाभ है, जबकि मुफ्तखोरी काफी अलग है यह आम वोटरों को लुभाने का जरिया है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यह पैसा करदाताओं का है, जिसका उपयोग पार्टियां अपने निजी प्रचार और वोटों की राजनीति के लिए कर रही हैं। इससे पहले भी दो जजों की पीठ ने सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु में इस मुद्दे पर बहस सुनी थी, लेकिन वहां न्यायालय ने फ्रीबीज या मुफ्त उपहार बांटने को गलत नहीं माना था।
रेवड़ी संस्कृति यानी सरकारी खजाने से भारी-भरकम चुनावी वादों की पूर्ति। कुछ लोग इसे जनता को मुफ्तखोरी की लत लगाने का नाम देते हैं। सार्वजनिक विमर्श में इसे फ्रीबीज या कहें कि मुफ्त उपहार की पेशकश कहा जाता है। हाल में फ्रीबीज की बहस ने खासा जोर पकड़ा है, लेकिन यह पटरी से उतरती प्रतीत हो रही है। गैर-भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने इस मामले में केंद्र को आड़े हाथों लिया है कि उन्हें अपनी जनता के लिए बेहतर कल्याणकारी योजनाएं मुहैया कराने की राह में अवरोध उत्पन्न करने के प्रयास किए जा रहे हैं। मुफ्त की संस्कृति के पक्ष में बोलने का सीधा अर्थ है आम मतदाताओं को अपने पक्ष में करना। इस मायने में भाजपा ने एक बड़ा रिस्क लिया है। केजरीवाल आम जनता की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। यह तो बेतरतीब तरीके से खर्च करने की दिल्ली की अनूठी क्षमताओं से जुड़ा मामला है। यह स्थिति शेष राज्यों के लिए एक गलत नजीर पेश करती है, जो इस प्रकार की दरियादिली दिखाना गवारा नहीं कर सकते।
सीधे शब्दों में कहें तो तमाम मुफ्त पेशकशों को लेकर अधिकांश राज्यों की अपनी एक स्वाभाविक सीमा है। वहीं दिल्ली इस मामले में अपवाद है। इस प्रकार देखें तो फ्रीबीज समस्या दिल्ली-जनित है, जो केजरीवाल की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को देखते हुए उन राज्यों तक फैल सकती है, जो दिल्ली की इस प्रकार की अस्वाभाविक रियायतों का बोझ नहीं उठा सकते। इस साल के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों से केजरीवाल बड़ी उम्मीद लगाए हुए हैं। राज्य में उन्होंने किसान कर्जमाफी, मुफ्त बिजली, महिलाओं और सरपंचों को मासिक भत्ते जैसे कई बड़े वादे किए हैं। कुछ समय के लिए भले ही गुजरात इनका बोझ वहन कर ले, लेकिन इनसे उसके सरकारी खजाने की हालत पतली होना तय है। दिल्ली राजस्व अधिशेष वाला राज्य है, क्योंकि उसके तमाम बिलों का भुगतान केंद्र सरकार करती है और केजरीवाल राज्य के समृद्ध खजाने से भारी रकम अपने प्रचार पर खर्च कर देते हैं। सूचना के अधिकार के अंतर्गत मिली जानकारी के अनुसार प्रचार पर दिल्ली सरकार के खर्च में अप्रत्याशित-अतिश्योक्तिपूर्ण वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 में केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने से ठीक पहले 2012-13 तक दिल्ली सरकार ने विज्ञापनों पर 12 करोड़ रुपये से कम खर्च किया, जबकि 2021-22 में केजरीवाल ने अर्द्ध-राज्य के प्रचार पर 488 करोड़ रुपये से अधिक व्यय कर दिए। अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं एवं सत्ता की लालसा को परवान चढ़ाने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अमीर अर्द्धराज्य के खजाने का इस्तेमाल कर रहे हैं। उसे दिल्ली मॉडल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जबकि उसे न तो कर्ज के बोझ तले कराहते पंजाब और न ही उससे बेहतर स्थिति वाले उस गुजरात तक कहीं भी दोहराना संभव नहीं, जहां केजरीवाल कांग्रेस की कीमत पर उभरना चाहते हैं, जो पार्टी पिछले तीन दशकों से अधिक से इस राज्य में भाजपा के किले को हिला तक नहीं पाई है।
जरूरत मुक्त की संस्कृति को नियंत्रित करने की है। राजनैतिक लाभ की रोटियां सेंकने वाले राजनीतिक दल अगर बेहतर प्रभावी आर्थिक नीतियां बनाए और उसे लाभार्थियों तक सही तरीके से पहुंचाए तो इस प्रकार की मुफ्त घोषणाओं की जरूरत नहीं रहेगी। चुनाव के समय सियासी पार्टियों को अपने घोषणा पत्र में उन आर्थिक नीतियों या विकास मॉडलों को विस्तार से बताना चाहिए जिसको वह अपनाने की योजना बना रही हैं। उन्हें जनता के सामने उन नीतियों को स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए और प्रभवी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। समाज की बेहतरी और सुशासन सुनिश्चित करना सरकार एवं अन्य सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है, इसलिए लोगों को इस तरह के मुफ्त उपहार देने की एक सीमा होनी जरूरी है। आज जिस तरह से सरकारें गरीबों के हित के नाम पर मुफ्त की स्कीम लांच कर रही है वास्तव में वह इससे अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति कर रही है। इस तरह देश के गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। वह कहते हैं कि मुफ्तखोरी की राजनीतिक से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है। मुफ्तखोरी की राजनीति से देश का आर्थिकक बजट लडखड़ाने का खतरा है। और इसके साथ निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता को बल मिलेगा अगर मुफ्त का राशन मिलेगा तो काम करना बंद कर देंगे। हिंदुस्तान में लोगों को बहुत कम में जीवन निर्वहन करने की आदत है ऐसे में जब मुफ्त राशन, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा मिलेगा तो काम क्यों करेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *