ललित गर्ग
लोकसभा एवं राज्यसभा में सत्तापक्ष या विपक्ष का अनुचित एवं अलोकतांत्रिक व्यवहार न केवल अशोभनीय, अनुचित एवं मर्यादाहीन है बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आदर्श परम्पराओं को धुंधलाने वाला है। शीतकालीन सत्र से लोकसभा के अब तक 95 एवं राज्यसभा के 46 कुल 141 सांसदों को सस्पेंड किए जाने के बाद विपक्षी सांसद संसद परिसर में धरना दे रहे थे। इस दौरान उन्होंने नारेबाजी की और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की नकल उतारकर मिमिक्री की, निश्चित ही इस तरह का अपमानजनक एवं अशालीन व्यवहार भारत के लोकतंत्र को कलंकित करने की चिन्ताजनक घटना है। उपराष्ट्रपति सर्वोच्च एवं सम्मानजनक पद है, इसकी गरिमा को आहत करना एवं उस पर आंच आने का अर्थ है राष्ट्र की अस्मिता एवं अस्तित्व को धुंधलाने की कुचेष्टा। तभी उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इस घटना को शर्मनाक बताते हुए कहा कि यह हास्यास्पद और अस्वीकार्य है कि एक सांसद मेरी मजाक उड़ा रहा है और दूसरा सांसद उस घटना का वीडियो बना रहा है। उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि मुझे अपनी परवाह नहीं है, मैं ये बर्दाश्त कर सकता हूं. लेकिन मैं कुर्सी का अपमान बर्दाश्त नहीं करूंगा। इस कुर्सी की गरिमा बरकरार रखने की जिम्मेदारी मेरी है। मेरी जाति, मेरी पृष्ठभूमि, इस कुर्सी का अपमान किया गया है। यहां बात सिर्फ लोकतंत्र के अपमान की भी नहीं है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की जिस तरह मिमिक्री कर उनका अपमान करने और हमारे संवैधानिक सर्वोच्च संस्थानों पर राजनीतिक हमले किये जाने का जो सिलसिला चला है वह एक तरह से भारत की छवि पर हमला है। इतने अधिक सांसदों का निलम्बन एवं उपराष्ट्रपति का अपमान लोकतांत्रिक इतिहास में इन्हें दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के रूप में देखा जाएगा।
यह विपक्षी दलों की बौखलाहट ही है कि अपनी सरकती राजनीतिक जमीन को बचाने की जुगत में वे जायज-नाजायज सभी तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं, यह भूलकर की उनकी भी कुछ मर्यादाएं एवं लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। यही विपक्ष कभी राष्ट्रपति तो कभी उपराष्ट्रपति, तो कभी प्रधानमंत्री के लिये अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए लोकतांत्रिक मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं। प्रधानमंत्री के लिए तो तानाशाह, हिटलर, नीच, मौत का सौदागर या कई अन्य अपमानजनक शब्द उपयोग किये हैं। अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का जिस तरह अपमान किया गया उसने सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है। लोकतंत्र में असहमति एवं आलोचना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है और इसे उसी रूप में लेने की जरूरत है, लेकिन हठधर्मिता, विध्वंसात्मक नीति एवं मिमिक्री करने जैसी घटनाओं से लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लोक राज्य, स्वराज्य, सुराज्य, रामराज्य का सुनहरा स्वप्न ऐसे अलोकतांत्रिक विपक्ष की नींव पर कैसे साकार होगा? यहां तो सभी दल अपना-अपना साम्राज्य खड़ा करने में लगे हैं। हालांकि विपक्षी दलों के तमाम अलोकतांत्रिक विरोध एवं उच्छृंखल रवैये ने निराशा का ही वातावरण बनाया है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध के पीछे मूलतः पिछले सप्ताह संसद की सुरक्षा में हुई चूक है। इसमें कहीं कोई दो राय नहीं कि यह गंभीर मसला है। सवाल सिर्फ यह है कि आखिर इस गंभीर मसले पर सदन के अंदर चर्चा की कोई राह दोनों पक्ष क्यों नहीं निकाल पा रहे? क्यों विपक्षी दल इस बात पर अड़े हैं कि कानून व्यवस्था से जु़ड़े इस गंभीर मसले पर केंद्रीय गृह मंत्री को बयान देना चाहिए, वहीं सरकार का कहना है कि संसद के अंदर की सुरक्षा स्पीकर की जिम्मेदारी होती है और इसलिए इस पर गृह मंत्री का बयान देना उचित नहीं होगा। लोकतंत्रीय पद्धति में किसी भी विचार, कार्य, निर्णय और जीवनशैली की आलोचना पर प्रतिबंध नहीं है। किन्तु आलोचक का यह कर्तव्य है कि वह पूर्व पक्ष को सही रूप में समझकर ही उसे अपनी आलोचना की छेनी से तराशे। किसी भी तथ्य को गलत रूप में प्रस्तुत कर उसकी आक्षेपात्मक आलोचना करना उचित नहीं है। जिन दलों, लोगों एवं विचारधाराओं का उद्देश्य ही निन्दा करने का हो, उनकी समझ सही कैसे हो? जिसका काम ही किसी अच्छे काम या मन्तव्य को जलील करने का हो, वह सत्य का आईना लेकर क्यों चलेगा?
विपक्षी दलों की हठधर्मिता से खड़े हुए गतिरोध के चलते संसद के शीत सत्र के बचे हुए दिनों में भी सुचारू ढंग से कामकाज होने के कोई आसार नहीं दिख रहे। ध्यान रहे, अगले आम चुनाव से पहले यह मौजूदा लोकसभा का आखिरी पूर्णकालीन सत्र है और इसमें कई अहम बिलों पर चर्चा होनी है। लेकिन पक्ष-विपक्ष का जो रवैया है उसे देखते हुए यही लगता है कि विपक्ष की गैरमौजूदगी में और बिना किसी चर्चा के ही इन बिलों को पास घोषित करना पड़ेगा। कितना दुखद प्रतीत होता है जब कई-कई दिन संसद में ढंग से काम नहीं हो पाता है। विवादों का ऐसा सिलसिला खड़ा कर दिया जाता है कि संसद में सारी शालीनता एवं मर्यादा को ताक पर रख दिया जाता है। विवाद तो संसद मंे भी होती हैं और सड़क पर भी। लेकिन संसद को सड़क तो नहीं बनने दिया जा सकता? वैसे, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं, जब परस्पर संघर्ष के तत्व ज्यादा और समन्वय एवं सौहार्द की कोशिशें बहुत कम नजर आती है। स्पष्ट है कि यदि दोनों पक्ष अपने-अपने रवैये पर अडिग रहते हैं तो संसद का चलना मुश्किल ही होगा। संसद में हुड़दंग मचाने, अभद्रता प्रदर्शित करने, मिमिक्री करने एवं हिंसक घटनाओं को बल देने के परिदृश्य बार-बार उपस्थित होते रहना भारतीय लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ ही माना जायेगा। सफल लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ ही मजबूत एवं शालीन विपक्ष की भी जरूरत होती है।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू उपराष्ट्रपति को जिस तरह अपमानित किया गया, उससे वह बेहद व्यथित हैं। व्यथित तो समूचा राष्ट्र है। राष्ट्रपति ने तो कहा कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उनकी अभिव्यक्ति शालीन तथा मर्यादा के दायरे में होनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि हमारी संसदीय परंपराएं हैं जिन पर हमें गर्व है और हम उन्हें बरकरार रखने की आशा करते हैं।’ भारत की संसदीय प्रणाली दुनिया में लोकप्रिय एवं आदर्श है, बावजूद इसके सत्ता की आकांक्षा एवं राजनीतिक मतभेदों के चलते लगातार संसदीय प्रणाली को धुंधलाने की घटनाएं होते रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब संसद की कार्रवाई को बाधित करना एवं संसदीय गतिरोध आमबात हो गयी है। संसद एक ऐसा मंच है जहां विरोधी पक्ष के सांसद आलोचना एवं विरोध प्रकट करने के लिये स्वतंत्र होते हैं, विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच तकरार और अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा, नारेबाजी, मिमिक्री करने की स्थितियां कैसे लोकतांत्रिक कही जा सकती हैं।
जागरूक भक्तों ने बचाया ओशो आश्रम
- रजनीश कपूर
जब भी कभी कोई आध्यात्मिक गुरु या संगठन काफ़ी विख्यात हो जाता है तो उसमें विवाद भी पैदा होने लगते हैं। ऐसा ही
कुछ हुआ विश्व भर के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु ओशो के संगठन के साथ। कुछ दिनों पहले ओशो रजनीश का पुणे स्थित आश्रम
भी ऐसे ही कारणों के चलते सुर्ख़ियों में रहा। विवाद का कारण पुणे के ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट की ज़मीन में से 3
एकड़ जमीन को ओशो के ही कुछ अनुयायियों और पूर्व ट्र्स्टी द्वारा मिलकर बेचना था। इससे ओशो विद्रोही गुट की बेचैनी
बढ़ गई, जिसने अपने “गुरु” की विरासत को खत्म करने के किसी भी कदम का कड़ा विरोध किया। मामला देश की सर्वोच्च
अदालत तक पहुँच गया और इस ग़ैर-क़ानूनी बिक्री पर रोक लगी।
देश भर में विभिन्न संप्रदायों और पंथों के आध्यात्मिक साधना केंद्रों की तरह पुणे का ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट भी
ओशो के अनुयायियों के लिए एक तीर्थ के समान है। ओशो को मानने वाले यहाँ ध्यान-साधना करने आते हैं। परंतु बीते कुछ
वर्षों से यह आश्रम विवादों में रहा है। ओशो के भक्तों के अनुसार ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन (ओआईएफ) पुणे के कोरेगांव
पार्क में बने इस रिसॉर्ट की ज़मीन को एक औद्योगिक घराने को कौड़ियों के भाव में बेचने का निर्णय ले चुका था। उनका यह
भी आरोप है कि ओआईएफ़ विदेशी ताकतों के हाथ में है और स्विटजरलैंड से संचालित हो रहा है। ग़ौरतलब है कि पुणे के
आश्रम की ज़मीन की क़ीमत लगभग ₹ 1500 करोड़ है। इसमें से एक हिस्सा ₹ 107 करोड़ में एक औद्योगिक घराने को
बेचने का प्रयास किया जा रहा था। इस ‘गुप्त सौदे’ के बारे में जैसे ही ओशो के शिष्य योगेश ठक्कर को पता चला तो उन्होंने
इस पर पुणे के चैरिटी कमिश्नर के पास आपत्ति दर्ज करवाई।
जैसे ही यह बात ओशो के अन्य भक्तों के बीच फैली तो कई और भक्त भी इसका विरोध करने पहुँच गए। उल्लेखनीय है कि
ओआईएफ़ ने स्वयं माना कि वो इसे बेचने की सोच रहा था। लेकिन इसके पीछे कोरोना के कारण ओशो कम्यून को हुए
नुकसान की भरपाई करना था। उनका कहना था कि कोरोना के कारण ओशो कम्यून को काफी नुकसान हुआ। इसके अलावा
सीमाएं बंद होने के कारण विदेशी अनुयायी नहीं आ सके, जिससे नुकसान और बहुत बढ़ गया और वित्तीय वर्ष 2020-21 में
यह 3.37 करोड़ तक पहुँच गया। इसी वजह से उन्होंने प्रॉपर्टी बेचने की बात सोची। वकील वैभव मेठा के अनुसार,
“ओआईएफ एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है। यदि कोई सार्वजनिक ट्रस्ट कोई जमीन बेचना चाहता है, तो चैरिटी आयुक्त
कार्यालय की अनुमति लेना अनिवार्य है। परंतु भक्तों के अनुसार इस ‘गुप्त सौदे’ के ‘एमओयू’ होने के बाद केवल औपचारिकता
निभाने की मंशा से ही अनुमति माँगी गई। परंतु ओशो के भक्तों को इसकी भनक लग गई। देखते ही देखते दुनिया भर के
हज़ारों भक्तों ने ईमेल के द्वारा चैरिटी कमिश्नर को अपनी आपत्ति जताई।
इस मामले की सुनवाई 2021 में ही ज्वाइंट चैरिटी कमिश्नर के समक्ष शुरू हुई। आपत्तिकर्ताओं ने ओआईएफ ट्रस्टियों,
जिन्होंने दो भूखंड बेचने की मांग की थी, उनसे जिरह की मांग की। संयुक्त चैरिटी आयुक्त कार्यालय ने याचिका को बरकरार
रखते हुए जिरह की माँग को जायज़ ठहराया। इस पर ओआईएफ ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, वहाँ भी जिरह
की मांग को बरकरार रखा गया। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाते हुए ओआईएफ सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस
मामले में न केवल जिरह की अनुमति दी, बल्कि संयुक्त चैरिटी आयुक्त के कार्यालय को अपनी जाँच प्रस्तुत करने का भी
निर्देश दिया। नतीजतन ओआईएफ को सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका को वापिस लेना पड़ा।
ओशो के भक्त योगेश ठक्कर के अनुसार “संयुक्त चैरिटी आयुक्त के कार्यालय ने मामले में लगातार सुनवाई की। इतना ही नहीं
एक विशेष दिन पर, सुनवाई सुबह 11 बजे शुरू हुई और रात 12 बजे के बाद समाप्त हुई,।” अंततः चैरिटी कमिश्नर ने
ओआईएफ के आवेदन को खारिज कर दिया, क्योंकि वे विवादित ज़मीन को बेचने के लिए “सम्मोहक आवश्यकता साबित
करने में विफल रहे”। इतना ही नहीं चैरिटी कमिश्नर कार्यालय ने यह भी तर्क दिया कि ओआईएफ के पास रिसॉर्ट का प्रबंधन
करने के लिए पर्याप्त धन भी मौजूद था।
आदेश के तहत ओआईएफ को न केवल 50 करोड़ की अग्रिम राशि लौटानी पड़ेगी, बल्कि आदेश की तारीख से एक महीने के
भीतर, सहायक चैरिटी आयुक्त, ग्रेटर मुंबई क्षेत्र द्वारा नियुक्त किए जाने वाले विशेष लेखा परीक्षकों की एक टीम द्वारा 2005
से 2023 तक ओआईएफ के खातों का विशेष ऑडिट भी किया जाएगा।
इस फ़ैसले के बाद ओशो के साथ रहे उनके वरिष्ठ शिष्य स्वामी चैतन्य कीर्ति ने कहा कि, “यह एक ऐतिहासिक फ़ैसला है जो
ओशो की विरासत को बचाने में एक मील का पत्थर सिद्ध होगा।” वे यह भी कहते हैं कि “यह एक लंबी लड़ाई की शुरुआत है
जहां कुछ निहित स्वार्थ वाले विदेशी तत्व ओशो की विरासत को हथियाना चाहते हैं, जिसमें ओशो की तमाम लेखनी व अन्य
चल-अचल संपत्ति भी शामिल है। जो हम कभी भी होने नहीं देंगे”
आध्यात्मिक संस्थाओं को स्थापित करने वाले गुरुओं के शिष्यों को उनके बताए सिद्धांतों का अनुपालन करना चाहिए वरना
गुरुओं के वैकुण्ठ वास के बाद ऐसे विवादों का होना सामान्य है। फिर वो मामला चाहे ओशो के आश्रम की ज़मीन का हो या
किसी अन्य आध्यात्मिक संस्था की संपत्ति का, ऐसे विवाद पैदा होते रहे हैं और होते रहेंगे। परंतु ऐसी हर आध्यात्मिक संस्था
में जब तक आध्यात्मिक गुरुओं के सच्चे शिष्य इन ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों का विरोध करते रहेंगे तो ही ऐसे विवादों को रोका
जा सकेगा। शायद इसीलिए कहा गया है कि सत्य परेशान ज़रूर हो सकता परंतु पराजित नहीं हो सकता।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।