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इस्लाम की लम्बी सोच

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कोई भी विचार जो १४०० साल पुराना है, उसे हमें लम्बी सभ्यतागत दृष्टि में ही समझना होगा।

जिस तरह भारत एक सभ्यतागत राष्ट्र है, उसी तरह इस्लाम एक सभ्यतागत शक्ति है और इसे उसी प्रकार से समझा जाना चाहिए।

मुसलमान यह कहते हैं कि ‘इस्लाम कभी नहीं हारा’। दुखद बात यह है कि एक देश को छोड़कर यह सच है। लेकिन इसका क्या अर्थ है? कि इस्लामी सेनाएँ कभी नहीं हारी? कि युद्ध के मैदान में शत्रु उनसे कभी नहीं जीते? कि उनके इतिहास में कभी बुरे साल या दशक नहीं आये? नहीं, ऐसा नहीं है। पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के बाद अरब से बाहर निकलते ही इस्लामी सेनाएं पूर्व में भारत के द्वार पर पहुंच गईं और पश्चिम में स्पेन में यूरोप के दरवाजे खटखटाने लगीं।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस समय के दो महान साम्राज्यों ने लगभग तुरंत ही इस्लाम के सामने घुटने टेक दिए। उस समय के सबसे महान साम्राज्यों में से एक, फारस, २० वर्षों के भीतर इस्लामी सेनाओं के आगे हार गया। फारस पर शासन करने वाले ससेनिड शासक बाईजेंटियम साम्राज्य के साथ अपने निरंतर युद्धों से थक चुके थे । केवल २० वर्षों में उनका साम्राज्य नष्ट हो गया था, और पारसी धर्म समाप्त हो गया।

यहां एक बात ध्यान देने योग्य है: इस्लामी सेनाएं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीत पर कभी नहीं रुकीं। उनके लिए एक जीत तब तक जीत नहीं थी जब तक कि यह इस्लाम की जीत न हो। इसलिए युद्ध जीतने के बाद मुस्लिम सेनायें तलवार की नोक पर धर्म परिवर्तन कराती थीं।

जजिया भी युद्ध के पश्चात तुरंत लागू किया जाता था जो इस्लाम के तहत गैर-मुस्लिम होने का कर था। आप केवल एक बहुत बड़े जजिया कर का भुगतान करके ही गैर-मुस्लिम बने रह सकते थे| यह कर कभी-कभी ७५% होता था। इसने निर्धारित हो गया कि सभी गैर-मुस्लिम अंततः इस्लाम में धर्मान्तरित हो जाएंगे।

गैर-मुसलामानों का धर्म परिवर्तन एक मुसलमान का सबसे पवित्र कर्तव्य था। इस्लाम के प्रकाश को सभी तक पहुंचाना जिहाद का लक्ष्य था।

इस्लामी सेना से हारने के पश्चात गैर मुसलमान के पास तीन विकल्प थे – मृत्यु, इस्लाम में धर्मांतरण, या जजिया कर देना।

जजिया से इस्लाम को बहुत लाभ होता था और अंततः कर के बोझ तले दबे गैर-मुसलमान इस्लाम अपना लेते थे।

एक बार इस्लाम अपनाने के पश्चात उसको छोड़ने का कोई भी प्रावधान इस्लाम में नहीं था।

“आप इस्लाम में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन आप इस्लाम को कभी नहीं छोड़ सकते”। इस्लाम छोड़ने की सजा मृत्यु है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह इस्लाम सदैव बढ़ता ही गया।

इसका ग्राफ धीमा होने पर भी कभी नीचे नहीं जाता। इसके कई अन्य निहितार्थ थे। ‘ऑलवेज इन, नेवर आउट’ के इस कानून का अर्थ था कि इस्लाम के विरोधियों को इस्लाम के विरुद्ध बार-बार जीतते रहना आवश्यक है एक अंतहीन श्रंखला में, परन्तु इस्लाम को केवल एक बार जीतने की आवश्यकता है। क्योंकि एक बार जीतने के बाद वे हारने वालों को मुसलमान बना लेते हैं और इस प्रकार से एक शत्रु इस्लाम का मित्र बन जाता है। इसका विश्व के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा।

इसने सुनिश्चित किया कि जबकि गैर-मुसलमानों को सदैव जीतते रहने की आवश्यकता है, इस्लाम का केवल एक बार जीतना पर्याप्त है। इसलिए मुसलमानों को बस प्रयत्न करते रहना था; और एक बार जब वे जीत जाते थे तो वे पराजित लोगों को सदैव के लिए इस्लाम में धर्मान्तरित कर देते। एक बार जब पराजित समाज का धर्मांतरण हो जाता था और वे इस्लाम का हिस्सा बन जाते थे तो वे और अधिक उत्साह से अल्लाह के सिपाही बन जाते थे।

इस तरह अरबी, फिर फारसी, फिर तुर्कों ने तलवार की नोक पर इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। पश्चिम में बाईजेंटियम भी इस्लामी सेनाओं से हार गया लेकिन इसने अपनी राजधानी कॉन्स्टेंटिनोपल को नहीं खोया। परन्तु इससे इस्लाम के लिए पश्चिम का रास्ता खुल गया। इस्लाम अफ्रीकी भूमध्यसागरीय तट को पार करते हुए स्पेन पहुंचा।

मिस्र के पूर्व क्षेत्रों को छोड़कर रास्ते में कोई अन्य प्रमुख देश नहीं थे। इससे इस्लाम को और सहायता मिली क्योंकि यह उनके धर्म, संस्कृति और भाषा को पूरी तरह से बदलने में सफल रहा। इस्लामी सेनाओं के अभूतपूर्व विस्तार के प्रारम्भिक छह या सात दशकों के बाद, इसकी सफलता भारत के द्वार पर रुक गयी और वह भारत के अन्दर प्रवेश नहीं कर सका।

अब प्रश्न यह आता है कि ये सेनाएं भी कभी न कभी तो हारी होंगी। क्या तब इस्लाम हार गया? नहीं। ऐसा नहीं है। जब इस्लामी सेनायें गैर-मुसलमान जनता पर राज करती थीं तो वह जनता इस्लाम में धर्मान्तरित हो जाती थी। पर तब क्या होता था जब गैर-मुस्लिम राजा इस्लामी जनता पर शासन करते थे? क्या गैर-मुसलामानों ने मुसलमानों को फिर से मूर्तिपूजक बनाया? नहीं।

जब मंगोल शासक हलाकू खान ने बगदाद को १२५८ ई में जीता तो उसने अब्बासिद इस्लामी खलीफा को घोड़ों के पैर तले कुचलवा दिया और बगदाद में मुसलमानों का नरसंहार किया। यह इस्लामी सत्ता की पहली सांझ थी।

मूर्तिपूजक-बौद्ध तुर्को-मंगोल शक्ति ने इस्लाम की राजनीतिक और सैन्य शक्ति को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। लेकिन क्या इसने इस्लाम को बुरी तरह प्रभावित किया? बिल्कुल भी नहीं। इससे उन्हें वास्तव में लाभ हुआ।

हलाकू खान (खान एक मूर्तिपूजक उपाधि है) एक मूर्तिपूजक-बौद्ध था, लेकिन अधिकांश अन्यजातियों की तरह वह दूसरों के ‘धर्मों’ का सम्मान करता था। वह यह पहचानने में असफल रहा कि इस्लाम धर्म नहीं था। यह एक ऐसा मज़हब था जो सभी धर्मों को समाप्त करना चाहता था।

हलाकू खान ने कभी मुसलमानों को धर्मांतरित करने का प्रयत्न नहीं किया। बल्कि उसने उन्हें इस्लाम का पालन करने की पूरी छूट दी। इसलिए जब इस्लामी सेनाएं हार गईं, और मुसलमानों का नरसंहार हुआ तब भी इस्लाम नहीं हारा क्योंकि साम्राज्य का धार्मिक विन्यास पूरी तरह से इस्लामी बना रहा।

हलाकू का पुत्र और उत्तराधिकारी, अबाका खान, एक बौद्ध था। उसका बेटा और अगला शासक, उनका पुत्र अर्घुन खान भी एक बहुत ही धर्मनिष्ठ बौद्ध था। लेकिन उसने भी अपनी मुस्लिम जनता को धर्मान्तरित करने का प्रयत्न नहीं किया।

बगदाद के मूर्तिपूजक शासकों की तीन पीढ़ियों ने अपनी मुस्लिम प्रजा को धर्मान्तरित करने का प्रयत्न नहीं किया। और ध्यान रखें कि कोई भी मुस्लिम शासक अपनी प्रजा को इस्लाम में धर्मान्तरित करने का एक भी अवसर नहीं जाने देता था।

इस्लाम प्रतीक्षा कर रहा था पासा पलटने का। इस बीच, मुस्लिम उम्मा लगातार मंगोल दरबार को एक-एक करके इस्लाम में धर्मान्तरित कर रहे थे: अधिकतर यह कहते हुए कि यह मंगोल शासकों को मुसलमानों पर शासन करने में सहायता करेगा यदि वे इस्लाम का पालन करते हैं| उदासीनता और अज्ञानता में अरघुन खान ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया।

अर्घुन एक धर्मनिष्ठ बौद्ध थे लेकिन उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि मुसलमानों को बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए। इस्लाम अपना समय बिता रहा था। इस्लाम का समय आया जब अरघुन का पुत्र ग़ज़ान इल-खानेत का चौथा प्रमुख सम्राट बना। ग़ज़ान को इब्न तैमियाह मुस्लिम बनने के लिए प्रेरित कर रहे थे। इब्न तैमियाह बहुत ही महत्वपूर्ण इस्लामी विद्वानों में से एक थे और बहुत ही असहिष्णु थे। अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ग़ज़ान मुस्लिम हो गया और अंत में इस्लाम की जीत हुई।

मुस्लिम प्रजा गैर-मुस्लिम शासकों की चार पीढ़ियों के बाद एक गैर-मुस्लिम सम्राट को धर्मान्तरित करने में सफल रही। इस्लाम तब भी जीतता है जब एक मुस्लिम सेना एक गैर-मुस्लिम देश को हरा देती है: तब मुस्लिम राजा गैर-मुसलमानों को परिवर्तित करते हैं। इस्लाम तब भी जीतता है जब गैर-मुस्लिम सेना एक मुस्लिम देश को हरा देती है: इस स्थिति में मुस्लिम जनता गैर-मुस्लिम राजा को धर्मान्तरित करती है। और दोनों ही प्रसंगों में इस्लाम की जीत होती है।

इस्लाम को केवल एक बार जीतने की आवश्यकता है। इल-खानेत का उत्तराधिकारी ईरान अभी भी १००% मुस्लिम देश है। उन्होंने कभी किसी अन्य धर्म को अपनी भूमि पर पनपने नहीं दिया।
इस्लाम को केवल एक बार जीतने की आवश्यकता है। जबकि गैर-मुसलमानों को इस्लाम को रोकने के लिए सदैव जीतते रहने की आवश्यकता है। यह स्थिति तभी बदल सकती है जब स्थिति अनुकूल होने पर गैर-मुसलमान भी मुसलमानों को धर्मांतरित करने का प्रयत्न करें।
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Omprakash B. Mishra
#स्मृति

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