हिंसक एवं असहिष्णु होते समाज की त्रासदी
– ललित गर्ग-
भारतीय समाज हिंसक एवं असभ्य होता जा रहा है। समाज में बढ़ती हिंसकवृत्ति आदमी को एक दिन कालसौकरिक कसाई बना देती है, कंस बना देती है, रावण बना देती है। एक ऐसा हिंसक समाज बन रहा है, जिसमें कुछ लोगों को दिन भर में जब तक किसी को मार नहीं देते, उन्हें बेचैनी-सी रहती है। इतिहास में ऐसे कुछ विकृत दिमाग के लोग हुए हैं, जिन्हें यातना देकर किसी को मारने में आनंद आता था। लेकिन आधुनिक सभ्य समाजों में ऐसी प्रवृत्ति का कायम रहना गहन चिन्ता का विषय है। यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि लोगों में असहिष्णुता, असहनशीलता और हिंसा की प्रवृत्ति इतनी कैसे बढ़ रही है कि जिन मामलों में उन्हें कानून की मदद लेनी चाहिए, उनका निपटारा भी वे खुद करने लगते हैं और इसका नतीजा अक्सर किसी की मौत के रूप में सामने आता है। दिल्ली में जिस तरह एक व्यक्ति को मोबाइल फोन चोरी करने के आरोप में कुछ लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला, वह इसका ताजा उदाहरण है।
पिछले दिनों कनाडा के ओंटेरियो यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार कुंठा, हिंसा और तनाव के लगभग 64 प्रतिशत मरीजों ने माना कि उन्हें इस बात का अंदाज नहीं था कि उनकी खास बीमारी की वजह अंदर दबा गुस्सा, असहिष्णुता एवं असहनशीलता हो सकता है। यह गुस्सा दूसरों की वजह से शुरू होता है और अंततः इसे आप हिंसक रूप में अभिव्यक्ति देते हैं। दिल्ली की ताजा घटना में बताया जा रहा है कि जिस युवक को पीट-पीट कर मार डाला गया, वह रात को एक कारखाने में घुसा और मोबाइल फोन चोरी कर लिया। उसे चोरी करते वहां उपस्थित एक व्यक्ति ने देख लिया और उसे पकड़ कर कुछ लोगों के साथ मिल कर पीटना शुरू कर दिया। पहले उसके बाल काटे और फिर इतना पीटा कि उसने वहीं दम तोड़ दिया। उसके शव को सड़क कर फेंक दिया गया। पुलिस ने सीसीटीवी की मदद से आरोपियों का पता लगाया। हालांकि हमारे समाज में यह आम प्रवृत्ति है कि किसी चोर के पकड़े जाने पर लोग खुद उसे पीट-पीट कर सजा देने का प्रयास करते हैं। मगर दिल्ली में हुई घटना लोगों में जड़ें जमा चुकी हिंसा, असहिष्णुता एवं असहनशीलता का परिचायक है। प्रश्न है कि आखिर समाज में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है।
व्यक्ति का चरित्र देश का चरित्र है। जब चरित्र ही बुराइयों की सीढ़िया चढ़ने लग जाये तो भला कौन निष्ठा के साथ देश का चरित्र गढ़ सकता है और कैसे लोकतंत्र के आदर्शों की ऊंचाइयां सुरक्षित रह सकती है? कैसे जीवन को अहिंसक एवं सहिष्णु बनाया जा सके? जिस देश की जीवनशैली हिंसाप्रधान होती है, उनकी दृष्टि में हिंसा ही हर समस्या का समाधान है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जब लोग मामूली बात पर कहा-सुनी होने या छोटी-मोटी आपराधिक घटनाओं पर भी खुद इंसाफ करने की नीयत से हिंसा का सहारा लेते हैं। ऐसी भी अनेक घटनाएं देखी गई हैं, जब किसी की हत्या करके अफसोस के बजाय कई लोग गर्व का अनुभव करते हैं। मानो किसी की जान ले लेना अब खेल होता गया है। इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए? क्या लोगों में पुलिस और न्याय व्यवस्था पर भरोसा कमजोर हुआ है? क्या अब लोगों में इतना भी विवेक नहीं रहा कि चोरी, जेबकरती जैसी आपराधिक घटनाओं की शिकायत पुलिस को करनी चाहिए और दंड तय करने का काम न्यायपालिका पर छोड़ देना चाहिए।
ऐसा भी दिखाई देता है कि सरकारों की आलोचना के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता या असहनशीलता का रुझान अब आम आदमी तथा लोगों तक भी नीचे पहुंच रहा है। हम एक समाज के तौर पर उन लोगों के प्रति और अधिक असहिष्णु बन रहे हैं जो विरोधी विचार रखते हैं और यहां तक कि ऐसे लोग भी जो अलग मत का पालन करते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल एक हालिया वीडियो जिसमें एक युवा को लगातार एक बुजुर्ग व्यक्ति को थप्पड़ मारते दिखाया गया है, नवीनतम उदाहरण है कि हमारा समाज तेजी से बीमार हो रहा है, हिंसक हो रहा है, असहिष्णु हो रहा है। बुजुर्ग व्यक्ति, जिसे यह स्वीकार करने के लिए कहा गया था कि उसका नाम मोहम्मद है, आखिरकार पिटाई की ताव न सहते हुए मर गया। जिस व्यक्ति को पीटते हुए दिखाया गया वह एक पार्षद (कौंसलर) का पति था। इस बात का खुलासा बाद में हुआ कि मृतक व्यक्ति एक हिंदू था और वास्तव में एक मानसिक रोगी था। वह उस बात को समझने में असमर्थ था जो उसकी पिटाई करने वाला जानने की मांग कर रहा था। और भी अधिक परेशान करने वाली बात यह थी कि कोई व्यक्ति उस राक्षस को बुजुर्ग तथा मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को पीटने से रोकने की बजाय वीडियो शूट कर रहा था।
इस तरह के जघन्य अपराधों के जैसे मामले बढ़-चढ़ कर सामने आ रहे हैं, उससे यही लग रहा है कि आपराधिक मानस वाले लोग एक बार फिर बेखौफ होने लगे हैं। किसी की जान ले लेने से भला कहां अपराध पर लगाम लगता है। किसी को सबक सिखाने का यह तरीका तो नहीं हो सकता कि उसे जान से ही मार डाला जाए। कैसे हमारे समाज से यह समझ और मानवीय तकाजा खत्म होता जा रहा है। हालांकि संबंधित मामले में पुलिस ने हत्या के आरोपियों की पहचान कर ली है और उन्हें इस तरह कानून को हाथ में लेने की सजा भी मिलने की उम्मीद है। मगर क्या इस तरह समाज की संवेदनशीलता लौटाई जा सकती है। क्या समाज को हिंसक होने की त्रासदी से बचाया जा सकता है?
समाज में बनते हिंसक मानस की कुछ वजहें तो समझी जा सकती हैं। पिछले कुछ सालों से जिस तरह उन्मादी तत्त्व समाज को सुधारने के नाम पर हिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते देखे जाने लगे हैं। सामुदायिक वैमनस्यता को बढ़ावा देते हैं। इस तरह अपने ही बीच रहने वाले बहुत सारे लोगों को कई लोग शक की नजर से देखने लगे हैं। तमाम संचार माध्यमों पर अपराध और हिंसा को आम घटना की तरह परोसा जाने लगा है। अपराधियों को समाज के कई लोग सम्मानित करते हैं, उन सबसे हमारे सामाजिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है। उन मूल्यों की स्थापना कैसे हो, यह बड़ी चिंता का विषय है। स्कूलों में नैतिक शिक्षा का पाठ तो पढ़ाया जाता है, मगर समाज के अगुआ अपने आचरण से जब तक उन मूल्यों को स्थापित नहीं करेंगे, हिंसक एवं असहिष्णुता की वृत्ति का उन्मूलन कठिन बना रहेगा। वैयक्तिक स्वार्थों, अहंकार एवं संकीर्णता की भागदौड़ में मन इतना संवेदनहीन बन गया कि आसपास की सिसकती जिन्दगी का दर्द छू नहीं पाता। यह समाज के विकृत होते जाने का बड़ा कारण है।
भारतीय समाज हिंसक एवं असभ्य होता जा रहा है। समाज में बढ़ती हिंसकवृत्ति आदमी को एक दिन कालसौकरिक कसाई बना देती है, कंस बना देती है, रावण बना देती है। एक ऐसा हिंसक समाज बन रहा है, जिसमें कुछ लोगों को दिन भर में जब तक किसी को मार नहीं देते, उन्हें बेचैनी-सी रहती है। इतिहास में ऐसे कुछ विकृत दिमाग के लोग हुए हैं, जिन्हें यातना देकर किसी को मारने में आनंद आता था। लेकिन आधुनिक सभ्य समाजों में ऐसी प्रवृत्ति का कायम रहना गहन चिन्ता का विषय है। यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि लोगों में असहिष्णुता, असहनशीलता और हिंसा की प्रवृत्ति इतनी कैसे बढ़ रही है कि जिन मामलों में उन्हें कानून की मदद लेनी चाहिए, उनका निपटारा भी वे खुद करने लगते हैं और इसका नतीजा अक्सर किसी की मौत के रूप में सामने आता है। दिल्ली में जिस तरह एक व्यक्ति को मोबाइल फोन चोरी करने के आरोप में कुछ लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला, वह इसका ताजा उदाहरण है।
पिछले दिनों कनाडा के ओंटेरियो यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार कुंठा, हिंसा और तनाव के लगभग 64 प्रतिशत मरीजों ने माना कि उन्हें इस बात का अंदाज नहीं था कि उनकी खास बीमारी की वजह अंदर दबा गुस्सा, असहिष्णुता एवं असहनशीलता हो सकता है। यह गुस्सा दूसरों की वजह से शुरू होता है और अंततः इसे आप हिंसक रूप में अभिव्यक्ति देते हैं। दिल्ली की ताजा घटना में बताया जा रहा है कि जिस युवक को पीट-पीट कर मार डाला गया, वह रात को एक कारखाने में घुसा और मोबाइल फोन चोरी कर लिया। उसे चोरी करते वहां उपस्थित एक व्यक्ति ने देख लिया और उसे पकड़ कर कुछ लोगों के साथ मिल कर पीटना शुरू कर दिया। पहले उसके बाल काटे और फिर इतना पीटा कि उसने वहीं दम तोड़ दिया। उसके शव को सड़क कर फेंक दिया गया। पुलिस ने सीसीटीवी की मदद से आरोपियों का पता लगाया। हालांकि हमारे समाज में यह आम प्रवृत्ति है कि किसी चोर के पकड़े जाने पर लोग खुद उसे पीट-पीट कर सजा देने का प्रयास करते हैं। मगर दिल्ली में हुई घटना लोगों में जड़ें जमा चुकी हिंसा, असहिष्णुता एवं असहनशीलता का परिचायक है। प्रश्न है कि आखिर समाज में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है।
व्यक्ति का चरित्र देश का चरित्र है। जब चरित्र ही बुराइयों की सीढ़िया चढ़ने लग जाये तो भला कौन निष्ठा के साथ देश का चरित्र गढ़ सकता है और कैसे लोकतंत्र के आदर्शों की ऊंचाइयां सुरक्षित रह सकती है? कैसे जीवन को अहिंसक एवं सहिष्णु बनाया जा सके? जिस देश की जीवनशैली हिंसाप्रधान होती है, उनकी दृष्टि में हिंसा ही हर समस्या का समाधान है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जब लोग मामूली बात पर कहा-सुनी होने या छोटी-मोटी आपराधिक घटनाओं पर भी खुद इंसाफ करने की नीयत से हिंसा का सहारा लेते हैं। ऐसी भी अनेक घटनाएं देखी गई हैं, जब किसी की हत्या करके अफसोस के बजाय कई लोग गर्व का अनुभव करते हैं। मानो किसी की जान ले लेना अब खेल होता गया है। इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए? क्या लोगों में पुलिस और न्याय व्यवस्था पर भरोसा कमजोर हुआ है? क्या अब लोगों में इतना भी विवेक नहीं रहा कि चोरी, जेबकरती जैसी आपराधिक घटनाओं की शिकायत पुलिस को करनी चाहिए और दंड तय करने का काम न्यायपालिका पर छोड़ देना चाहिए।
ऐसा भी दिखाई देता है कि सरकारों की आलोचना के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता या असहनशीलता का रुझान अब आम आदमी तथा लोगों तक भी नीचे पहुंच रहा है। हम एक समाज के तौर पर उन लोगों के प्रति और अधिक असहिष्णु बन रहे हैं जो विरोधी विचार रखते हैं और यहां तक कि ऐसे लोग भी जो अलग मत का पालन करते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल एक हालिया वीडियो जिसमें एक युवा को लगातार एक बुजुर्ग व्यक्ति को थप्पड़ मारते दिखाया गया है, नवीनतम उदाहरण है कि हमारा समाज तेजी से बीमार हो रहा है, हिंसक हो रहा है, असहिष्णु हो रहा है। बुजुर्ग व्यक्ति, जिसे यह स्वीकार करने के लिए कहा गया था कि उसका नाम मोहम्मद है, आखिरकार पिटाई की ताव न सहते हुए मर गया। जिस व्यक्ति को पीटते हुए दिखाया गया वह एक पार्षद (कौंसलर) का पति था। इस बात का खुलासा बाद में हुआ कि मृतक व्यक्ति एक हिंदू था और वास्तव में एक मानसिक रोगी था। वह उस बात को समझने में असमर्थ था जो उसकी पिटाई करने वाला जानने की मांग कर रहा था। और भी अधिक परेशान करने वाली बात यह थी कि कोई व्यक्ति उस राक्षस को बुजुर्ग तथा मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को पीटने से रोकने की बजाय वीडियो शूट कर रहा था।
इस तरह के जघन्य अपराधों के जैसे मामले बढ़-चढ़ कर सामने आ रहे हैं, उससे यही लग रहा है कि आपराधिक मानस वाले लोग एक बार फिर बेखौफ होने लगे हैं। किसी की जान ले लेने से भला कहां अपराध पर लगाम लगता है। किसी को सबक सिखाने का यह तरीका तो नहीं हो सकता कि उसे जान से ही मार डाला जाए। कैसे हमारे समाज से यह समझ और मानवीय तकाजा खत्म होता जा रहा है। हालांकि संबंधित मामले में पुलिस ने हत्या के आरोपियों की पहचान कर ली है और उन्हें इस तरह कानून को हाथ में लेने की सजा भी मिलने की उम्मीद है। मगर क्या इस तरह समाज की संवेदनशीलता लौटाई जा सकती है। क्या समाज को हिंसक होने की त्रासदी से बचाया जा सकता है?
समाज में बनते हिंसक मानस की कुछ वजहें तो समझी जा सकती हैं। पिछले कुछ सालों से जिस तरह उन्मादी तत्त्व समाज को सुधारने के नाम पर हिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते देखे जाने लगे हैं। सामुदायिक वैमनस्यता को बढ़ावा देते हैं। इस तरह अपने ही बीच रहने वाले बहुत सारे लोगों को कई लोग शक की नजर से देखने लगे हैं। तमाम संचार माध्यमों पर अपराध और हिंसा को आम घटना की तरह परोसा जाने लगा है। अपराधियों को समाज के कई लोग सम्मानित करते हैं, उन सबसे हमारे सामाजिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है। उन मूल्यों की स्थापना कैसे हो, यह बड़ी चिंता का विषय है। स्कूलों में नैतिक शिक्षा का पाठ तो पढ़ाया जाता है, मगर समाज के अगुआ अपने आचरण से जब तक उन मूल्यों को स्थापित नहीं करेंगे, हिंसक एवं असहिष्णुता की वृत्ति का उन्मूलन कठिन बना रहेगा। वैयक्तिक स्वार्थों, अहंकार एवं संकीर्णता की भागदौड़ में मन इतना संवेदनहीन बन गया कि आसपास की सिसकती जिन्दगी का दर्द छू नहीं पाता। यह समाज के विकृत होते जाने का बड़ा कारण है।