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*कांवड़ यात्रा – श्रृद्धा को नमन*

*कांवड़ यात्रा – श्रृद्धा को नमन*

कांवड़ यात्रा का चलन 1990 के दशक के उत्तरार्ध से प्रारम्भ होता है, जब 15-20 युवा, महादेव की भक्ति में लीन होकर हरिद्वार से नंगे पैर पैदल चलकर कांवड़ लेकर चले थे। उस समय उन सभी का एकमात्र उद्देश्य श्रवण कुमार की भांति अपने माता-पिता को पुण्य दिलाने का था। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को एक कांवड़ में बिठाकर, मिट्टी के पात्र में गंगा जल भर कर अपने कंधे पर उठाकर तीर्थ यात्रा कराने के लिए निकले थे और मार्ग में जितने भी शिवालय पड़ते थे, वहाँ पर वो यदि उनके हाथ से सम्भव हुआ तो ठीक नहीं तो उनके निमित्त थोड़ा सा जल चढ़ाते हुए आगे बढ़ते थे। अर्थात् उनका कांवड़ यात्रा करने का उद्देश्य विशुद्ध रूप से माता-पिता का कल्याण एवं उनके स्वर्ग में स्थान प्राप्त करने का प्रयास था।
समय के साथ-साथ कांवड यात्रा का स्वरूप भी शनै-शनै बदलता चला गया। जहाँ पूर्व में इस यात्रा में मात्र पुरुष वर्ग ही सम्मिलित होता था, वहीं इसमें महिलाएँ भी सम्मिलित होनी शुरु हो गई। प्रारम्भ में कावंड यात्रा के अन्तर्गत मिट्टी के पात्र में जल लाया जाता था, फिर उसके स्थान पर कांच की बोतल का चलन आया और अब प्लास्टिक की बोतल में जल लाया जाता है। यात्रा का स्वरूप फिर बदला, अब 5-6 युवा डाक कांवड के अन्तर्गत हरिद्वार से मोटरसाईकिल पर बैठकर तथा दौढ़ते हुए निश्चित शिवालय तक परस्पर डंडा पकड़ाते हुए गन्तव्य स्थान तक पहुँचते हैं। पुनः बदलाव के अन्तर्गत पैदल के स्थान पर, मोटरसाईकिल और कारों में प्लास्टिक की बोतल एवं केन में रखकर जल आना प्रारम्भ हो गया। अब नवीन परिवर्तन के अन्तर्गत त्वरित कांवड़ का चलन प्रारम्भ हो गया है, जिसमें 15-20 लोग मिलकर एक छोटे ट्रक को तैयार कर डीजे तथा कुछ आवश्यक साधन लेकर चलते हैं और उसमें गंगाजल भरकर नियत शिवालय तक शिवरात्री में जल चड़ाने आ जाते हैं।
समय के साथ बदलाव आना स्वाभाविक है, परन्तु अब जो बदलाव आ रहा है वह आश्चर्यजनक है। पहले कांवड लाने वाले कुछ लोग भांग और धतूरा का सेवन महादेव का प्रसाद मानकर कर किया करते थे, परन्तु अब अंग्रेजी शराब का सेवन भी बड़ी मात्रा में होना प्रारम्भ हो गया है। इस बार की यात्रा में पुलिस द्वारा डरते-डरते ट्रकों में भारी मात्रा में अंग्रेजी शराब पकड़ी गई है। धीरे-धीरे कांवड का वास्तविक स्वरूप बदलता जा रहा है, हालंाकि शासन प्रशासन की तरफ से जो सुविधाएं अब प्राप्त है, वो पहले कभी नहीं थी। अब ट्रकों के माध्यम से गंगाजल लाने वाले परस्पर आगे निकलने के लिए रेस लगाते हैं, जिसमें बहुत सी दुर्घटना भी घटित हुई और कई युवाओं की जीवन लीला तक समाप्त हो गई। इसके इतर बहुधा नाच गानों का भी आयोजन किया जाता है। अतीत में कांवड लाने का मुख्य ध्येय माता-पिता हुआ करते थे, वर्तमान समय में वे अनाथालायों में सूखी जली रोटियां खाते हैं जबकि कांवड़ियों की सेवा जनता देशी घी के पकवान बनाकर करती है। कांवड़िये यह तथ्य पूर्णतया विस्मृत कर चुके हैं कि यह गंगाजल वह अपने माता-पिता के कल्याण के लिए लाये हैं, अतः इसको शिवजी को अर्पित करने का अधिकार केवल उनके माता-पिता को है। यदि वे दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं तभी पुत्र या पुत्री उनको स्मरण कर, शिवजी को जल अर्पित कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि कांवड़ लाने की ये मूल भावना पुर्नजीवित की जाए।
अब समय आ गया है कि समाज द्वारा इस कांवड यात्रा के मूल में छिपे तथ्यों को समझना होगा और कांवड लाने का अधिकार केवल उन्हीं पुत्र-पुत्रियों को होना चाहिए, जो अपने माता-पिता की सेवा एवं आदर करते हैं। यदि समाज नहीं जागेगा तो भविष्य में इस धार्मिक आयोजन के अभिषाप भी बनने की सम्भावना हो सकती है। भविष्य में इन कांवड़ियों को भोले ना कहकर मातृ-पितृ भक्त कहा जाए तो सर्वाधिक उत्तम होगा।

*योगेश मोहन*

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