क्या पहले और दूसरे विश्व युद्ध की कोई ओपचारिक घोषणा हुई थी ? नहीं न। तो तीसरे विश्व युद्ध की ओपचारिक घोषणा का इंतज़ार क्यों? पिछले एक बर्ष में ज़ेविक हथियार से चीन ने दुनिया की कमर तोड़ दी। अब चीन का प्यादा तुर्की अजरबेजान के कंधे पर बंदूक़ रखकर रुस और फ़्रांस के प्यारे आर्मीनिया को बर्बाद करने पर तुला है। अब तक १५ हज़ार लाशें बिछ चुकी हैं। सच्चाई यह है कि यह बहुत थोड़ी सी तबाही है। अब इस खेल में अलक़ायदा और आइएसआइएस की ज़बरदस्त एंट्री हो चुकी है और दुनिया के सारे ईसाई व मुस्लिम राष्ट्र इस धर्म युद्ध या सभ्यताओं के संघर्ष में शामिल होते जा रहे हैं। प्रबल संभावना है कि अब इस युद्ध में पुराने गठजोड़ व गठबंधन टूटे जाएँगे व नए बनते जाएँगे। जंग का मैदान नित नयी उलटबाँसिया देख रहा है। अब यह भयावह रूप लेने वाला है क्योंकि अनेक महाशक्तियाँ इसमें प्रवेश करने वाली हैं।
१) अमेरिका की रिपब्लिकन ख़ेमे से परोक्ष रूप से जुड़ा अलक़ायदा और डेमोक्रेटिक ख़ेमे से जुड़ा आइएसआइएस दोनो के आतंकी इस धर्मयुद्ध में कूद गए हैं यानि सुन्नियों के तुर्की गुट के साथ आइएसआइएस (डेमोक्रेटिक ख़ेमे के) आतंकी ताल ठोक रहे हैं तो सुन्नियों के साउदी अरब गुट के साथ अलक़ायदा ( रिपब्लिकों के ख़ेमे के) आतंकी ताल ठोक रहे हैं और ये दोनो ही गुट अजरबेजान के साथ खड़े दिख रहे हैं। राष्ट्रपति ट्रम्प अमेरिका की ओर से साउदी अरब व इसराइल के माध्यम से तुर्की के पड़ोसी देशों पर हमले, हथियार व मदद से अजरबेजान को अपने ख़ेमे में करने की कोशिश में लगे हैं तो चीन अमेरिका में ट्रम्प विरोधी डेमोक्रेटिक ख़ेमे टर्की व पाकिस्तान की मदद से अजरबेजान को साध रहा है। यह बहुत ही विचित्र स्थिति है। ट्रम्प युद्धविराम चाहते हैं ताकि तुर्की का वर्चस्व न बढ़े, ईसाइयों का नरसंहार रुके और इस्लामी ख़ेमे में भी पकड़ बनी रहे। कुल जमा अमेरिका की स्थिति इस क्षेत्र में बहुत कमजोर दिख रही है।
२) शिया ईरान अब खुलकर आर्मेनिया के साथ आता जा रहा है जो इसाई देशों के लिए बड़ी बात है। फ़्रांस में आर्मीनियाई इसाई बड़ी संख्या में है और उनका राजनीतिक महत्व भी है इसलिए वह भी आर्मीनिया के साथ खुलकर आता जा रहा है।
३) पुन ख़लीफ़ा बनने को लालायित तुर्की जो ख़ासा ताकतवर बन चुका है अब चीन की तरह ही विस्तारवादी बन चुका है और चीन की तरह ही अपने सभी पड़ोसियों सीरिया, इराक़ , ग्रीस आदि से उलझा हुआ है और लगभग युद्ध के कगार पर है। तुर्की को नियंत्रित करने के लिए फ़्रांस ग्रीक (यूनान) के साथ खड़ा हो गाय है और उससे हुई सेंन्य संधि के तहत हथियार व राफ़ेल जैसे युद्धक विमान दे रहा है। ऐसे में अगले कुछ दिनो में यह संघर्ष चीन – तुर्की बनाम रुस – फ़्रांस होने वाला है।
४) अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने व सुपर पावर बने रहने के लिए अमेरिका व ब्रिटेन को आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान व भारत की मदद से पूर्वी व दक्षिणी चीन सागर में चीन के विरुद्ध बड़ा आक्रमण करना होगा अन्यथा बाजी रुस व चीन में किसी एक के हाथ लग सकती है। अगर अमेरिका चुनावों से पूर्व ऐसा कर पाता है तो शक्ति समीकरण पुन बदल सकते हैं और ट्रम्प जहाँ राष्ट्रपति चुनाव भी जीत सकते हैं वहीं रुस को अपनी ओर भी ला सकते हैं।
५) अब प्रश्न यह है कि नाटो, यूएन व सुरक्षा परिषद आदि क्या कर रहे हैं? सच्चाई यह है कि विश्व अब एक ध्रुवीय यानि अमेरिका केंद्रित नहीं रहा और अब चीन व रुस जेसी सुपर पावर व एक दर्जन रीजनल पावर दुनिया में उभर चुकी हैं और ये सब अमेरिकी वर्चस्व वाली हर अंतर्रष्ट्रीय संस्थाओं की बात सुनने व मानने को तैयार नहीं। वे विश्व व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव चाहती हैं ताकि उनकी सम्माजनक भागीदारी व हिस्सा हो और इसके लिए बड़ा संघर्ष करना ही एकमात्र रास्ता है। इसलिए अपनी ताक़त बढ़ाने व अन्यो को कमजोर करने के खेल ही एकमात्र उपाय हैं। इसीलिए दुनिया बड़े संघर्ष व तबाही की ओर बढ़ चुकी है अब इसे तीसरा विश्व युद्ध कह लो या सामूहिक विनाश व आत्महत्या के खेल क्या फ़र्क़ पड़ता है। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि ईसा व मूसा दोनो की संतानो का अस्तित्व ही दांव पर है।
-अनुज अग्रवाल
संपादक,डायलॉग इंडिया
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