
विकास मजबूरी – संतुलन जरूरी : अनुज अग्रवाल
कुछ न होने वाला, डराओ मत, हमेशा नकारात्मक ही क्यों सोचते व बोलते हो, प्रकृति के पास अपार संसाधन हैं इसलिए उनके उपयोग पर रोक टोक न लगाओ आदि आदि। प्रकृति प्रेमी और पर्यावरणविद् अधिकांश: इसी तरह के जुमले सुनने के आदि होते हैं। जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं और हादसे होते हैं तब कुछ समय के लिए उनकी बातो पर चर्चा होती है किंतु शीघ्र ही विकासवादी उतावलेपन का शिकार हो जाते हैं और संतुलन खो, अनियंत्रित विकास और आपाधापी का शिकार हो जाते हैं। भौतिक जीवन के सुख पाने के लिए आवश्यक संसाधनों की होड़ के बीच आम आदमी तो उतावला हो ही जाता है । उसके इन उतावलेपन व ललक को नेता, नौकरशाह व कारपोरेट घराने भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और अनियंत्रित व अनियोजित विकास का अंबार खड़ा कर देते हैं। बिना योजना व संवेदनशीलता से भरा यह नींव हीन विकास शेने शेने बिखरने लगता है और अंततः जोशीमठ के दरकने के रूप में सामने आता...