
धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा”
भारत के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि आठ सौ वर्षों के निरन्तर आक्रमण के परिणाम स्वरूप हमारी चिन्तन प्रक्रिया बदल गई है। हम एक हजार वर्ष पूर्व जिन शब्दों को जिन अर्थों में ग्रहण करते थे आज ग्रहण कर पाने में असमर्थ हैं। इनमें एक सबसे महत्वपूर्ण शब्द धर्म है।
अब्राहमिक मजहबों के आक्रमणों के फलस्वरूप हमने धर्म को मजहब के पर्याय के रूप में प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। वास्तविकता तो यह है कि उनके यहाँ धर्म जैसी कोई परिकल्पना है ही नहीं। धर्म एक वृहत्तर और व्यापक परिकल्पना है। धर्म परलोक पर आधारित नहीं लोक पर आधारित होता है। धर्म स्वयं के लिए ही नहीं सबके लिए होता है। धर्म की महत्ता उसकी व्यापकता पर निर्भर करती है। धर्म का कर्म स्वयं से प्रारम्भ होकर समष्टि में विलीन होता है। जो कर्म सभी के लिए और सबका है वही धर्म है।
धर्म की क्रिया मरने के बाद स्वर्ग के लिए नहीं जीते जी लोक के लिए हो...