डिजिटल युग में बच्चे गुस्सैल और आक्रामक क्यों?
विनीत नारायण
आज के डिजिटल युग में, बच्चों का व्यवहार और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। माता-
पिता और शिक्षक अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बच्चे पहले की तुलना में अधिक गुस्सैल, चिड़चिड़े और आक्रामक
हो गए हैं। इसका एक प्रमुख कारण बच्चों का कम उम्र में मोबाइल फोन और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग है।
प्रारंभिक स्क्रीन टाइम और डिजिटल दुनिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को नकारात्मक रूप से
प्रभावित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें गुस्सा और आक्रामकता बढ़ रही है।
आज के बच्चे ‘डिजिटल नेटिव्स’ हैं, यानी वे उस दुनिया में पैदा हुए हैं जहां स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट रोजमर्रा की
जिंदगी का हिस्सा हैं। पहले जहां बच्चे खेल के मैदान में दोस्तों के साथ समय बिताते थे, वहीं अब वे मोबाइल स्क्रीन पर
गेम खेलने, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में
6-12 वर्ष की आयु के बच्चे औसतन प्रतिदिन 2-4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। ये आंकड़ा किशोरों में और भी अधिक है।
हालांकि तकनीक ने शिक्षा और मनोरंजन के नए द्वार खोले हैं, लेकिन इसका अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों
के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्र में मोबाइल और
इंटरनेट का उपयोग बच्चों के मस्तिष्क के विकास, भावनात्मक नियंत्रण और सामाजिक कौशलों को प्रभावित करता है।
गुस्सा और आक्रामकता के कारण बच्चों का मस्तिष्क विकास के महत्वपूर्ण चरण में होता है और इस दौरान स्क्रीन
टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मस्तिष्क के ‘प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स’ को प्रभावित करता है, जो भावनाओं को नियंत्रित
करने और निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया में तेजी से बदलते दृश्य
और तत्काल पुरस्कार (जैसे गेम में जीत या लाइक्स का मिलना) बच्चों के मस्तिष्क में ‘डोपामाइन’ का स्तर बढ़ाते हैं।
इससे वे तुरंत संतुष्टि की उम्मीद करने लगते हैं और जब वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता, तो वे निराश, चिड़चिड़े
और गुस्सैल हो जाते हैं।

इंटरनेट पर उपलब्ध कई गेम्स और वीडियो में हिंसा, आक्रामकता और अनुचित व्यवहार को दर्शाया जाता है। बच्चे,
जिनका दिमाग अभी परिपक्व नहीं हुआ है, इन सामग्रियों को देखकर हिंसक व्यवहार को सामान्य मानने लगते हैं।
उदाहरण के लिए कई लोकप्रिय मोबाइल गेम्स में युद्ध, लड़ाई और विनाश को बढ़ावा दिया जाता है, जो बच्चों में
आक्रामक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकता है।
मोबाइल और इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से बच्चे वास्तविक दुनिया में अपने दोस्तों और परिवार से कट जाते हैं। वे
सोशल मीडिया पर तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संपर्क की कमी उन्हें अकेला और उदास बनाती है।
यह अकेलापन और भावनात्मक खालीपन अक्सर गुस्से और आक्रामकता के रूप में व्यक्त होता है।
देर रात तक मोबाइल फोन का उपयोग, विशेष रूप से नीली रोशनी का संपर्क, बच्चों की नींद की गुणवत्ता को
प्रभावित करता है। अपर्याप्त नींद बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव और गुस्से को बढ़ाती है। एक शोध के अनुसार, जो बच्चे
रात में अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हैं, उनमें भावनात्मक अस्थिरता और आक्रामक व्यवहार की संभावना अधिक
होती है।
सोशल मीडिया बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाता है। वे दूसरों की ‘परफेक्ट’ जिंदगी, लुक्स या उपलब्धियों को
देखकर खुद को कमतर महसूस करते हैं। यह आत्मसम्मान में कमी और असंतोष का कारण बनता है, जो गुस्से और
आक्रामकता के रूप में सामने आता है।
प्रारंभिक उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग केवल गुस्सा और आक्रामकता तक सीमित नहीं है।
इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी चिंताजनक हैं। बच्चों में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो रही है, उनकी रचनात्मकता
प्रभावित हो रही है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इसके अलावा, लगातार स्क्रीन टाइम के कारण
शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है, जैसे कि मोटापा, आंखों की समस्याएं और खराब मुद्रा।
इस समस्या से निपटने के लिए माता-पिता, शिक्षकों और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
निम्नलिखित कुछ सुझाव हैं जो बच्चों में गुस्सा और आक्रामकता को कम करने में मदद कर सकते हैं। माता-पिता को
बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों
को प्रतिदिन 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं देना चाहिए। बड़े बच्चों के लिए भी उम्र के अनुसार समय सीमा
निर्धारित करें। बच्चों को खेल, कला, संगीत और पढ़ने जैसी गतिविधियों में शामिल करें। ये न केवल उनकी
रचनात्मकता को बढ़ाते हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से स्थिर भी बनाते हैं।

माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। साथ में भोजन करना, कहानियां सुनाना या बाहर
घूमने जाना बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। बच्चों को ऐसी सामग्री देखने के लिए प्रोत्साहित करें जो
शिक्षाप्रद और सकारात्मक हो। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे हिंसक गेम्स या वीडियो से दूर
रहें। बच्चों को इंटरनेट के सुरक्षित और जिम्मेदार उपयोग के बारे में शिक्षित करें। उन्हें सोशल मीडिया के सकारात्मक
और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताएं। यदि बच्चा लगातार गुस्सा या आक्रामक व्यवहार दिखा रहा है, तो
मनोवैज्ञानिक या काउंसलर की मदद लें। प्रारंभिक हस्तक्षेप से समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।
बच्चों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी ये चेतावनी है कि लगातार डिजिटल उपकरणों का उपयोग मानसिक और
शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इसके लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ करने के जरूरत होती है। जो तनाव कम
करने, नींद सुधारने और वास्तविक रिश्तों को मजबूत करने में मदद करता है। यह एकाग्रता बढ़ाता है और बच्चों को
स्क्रीन से दूर प्रकृति व खेलों से जोड़ता है। समय-समय पर ‘डिजिटल डिटॉक्स’ अपनाकर हम और हमारे बच्चे संतुलित
और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।
मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इसका बच्चों पर होने वाला प्रभाव
गंभीर है। यह माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को डिजिटल दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से
बचाएं और उनके समग्र विकास को प्रोत्साहित करें। संतुलित जीवनशैली, सकारात्मक वातावरण और प्रेमपूर्ण
देखभाल के साथ, हम बच्चों को न केवल गुस्से और आक्रामकता से मुक्त कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक स्वस्थ और
खुशहाल भविष्य भी दे सकते हैं।