*भारत को बहुत उम्मीदें हैं , १५ वे राष्ट्रपति से*
भारत ने श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को देश की १५ वीं राष्ट्रपति चुन लिया । वह इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली देश की पहली आदिवासी महिला हैं । वैसे तो जीत के लिए जरूरी ५ लाख ४३ हजार २६१ वोट के स्थान पर उन्हें ५ लाख ७७ हजार ७७७ वोट मिले। पराजित उम्मीदवार यशवंत सिन्हा २ लाख ६१ हजार ६२ वोट ही प्राप्त कर सके। भारत के १५ वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू तय कार्यक्रम के अनुसार शपथ लेंगी | वस्तुत: , राष्ट्रपति सिर्फ संविधान की शपथ नहीं लेते, बल्कि वे संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू इस शपथ को निभा पायें | इसी आशा और विश्वास के साथ उन्हें शुभ कामना और बधाई |
राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला का निर्वाचन, भारत का एक बार फिर लोकतंत्रीय व्यवस्था में विश्वास का द्योतक है, यह उस आशा का प्रतीक है जो भारत की आजादी के समय हमारे नेताओं ने नागरिकों से की थी |भारत ने गुजरे ७४ साल में सर्वोच्च सांविधानिक पद पर मुल्क के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया है। अब तक देश को तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपति, दो महिला, दो दलित, एक आदिवासी राष्ट्रपति भी मिला और सभी राज्यों को प्रतिनिधित्व का मौका भी साफ दिखा | फिर भी आज पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की समस्या का हल भारत नहीं खोज सका है | यह वेला आत्मनिरीक्षण और व्यवस्था की भी है | भारत को यह प्रमाणित करना है कि देश सही रास्ते पर चल रहा हैं। यह तो सिद्ध हो चुका है कि भारत में महिला, आदिवासी, दलित विरोधी समाज नहीं है।
इस जीत को महिलाओं के सशक्तीकरण के जश्न के तौर पर दिखाया या मनाया जा सकता है, लेकिन भारत की आधी आबादी के सवाल ज्यों के त्यों खड़े दिखते हैं |एक ताजा सर्वे में भारत के एक राज्य के लोगों ने महिलाओं के साथ होने वाली “पारिवारिक हिंसा” या पति द्वारा पत्नी को पीटने को गैर-वाजिब नहीं माना है । उनका तर्क है कि यह अच्छे परिवार के लिए जरूरी है। क्या १५ वें राष्ट्रपति का यह चयन इस प्रकार की धारणा या संदेश को बदलने में कारगर साबित होगा ?
वैसे राष्ट्रपति का समाज की बेहतरी या ताकत से सीधा रिश्ता नहीं होता, परन्तु यह उस वर्ग के आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव से नत्थी है और उम्मीद है उस वर्ग को एक नई ताकत भी देगा जो निराशा व पिछडे़पन से उबरने के लिए संघर्षरत है। जैसे भारत में दो-दो दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन और रामनाथ कोविंद ने भले ही सीधे तौर पर दलित समाज के उत्थान के लिए कोई बड़ा काम न किया हो, लेकिन सर्वोच्च सांविधानिक पद पर उनके बैठने से दलित समाज को यह भरोसा जरूर कायम हुआ है कि अब वे कमजोर नहीं हैं। तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपति होने से मुसलमानों की एक बड़ी आबादी का पिछड़ापन यथावत हो, लेकिन भारत के मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक होने की भावना कम हुई हैं। आज आम मुसलमान समझता है कि भारत में उसके हक और बराबरी को कोई नहीं रोक सकता।
महिला वर्ग पर विचार करें तो पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और एक जमाने में एक साथ पांच-पांच राज्यों में महिला मुख्यमंत्री, कई राज्यों में महिला राज्यपाल व बहुत से राजनीतिक दलों के अध्यक्ष पद पर महिलाओं के बैठने से भारत की आम महिला को ताकत मिली है। अब उम्मीद है,संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की बात सिरे चढ़ेगी |आज महिलाओं के कामकाजी होने को लेकर जो दृश्य उपस्थित है इसका एक बड़ा कारण हमारी आर्थिक जरूरतें हैं। यह दृश्य सहज होना चाहिए, उम्मीद की जा सकती है, इस दिशा में कुछ और होगा| इसी आशा एवं विश्वास के साथ देश के १५ वें राष्ट्रपति का स्वागत एवं बधाई |