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सेना के साथ खड़ा भारत, सत्ता के लिए लड़ता पाकिस्तान

सेना के साथ खड़ा भारत, सत्ता के लिए लड़ता पाकिस्तान

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सेना के साथ खड़ा भारत, सत्ता के लिए लड़ता पाकिस्तान संजय सक्सेना,वरिष्ठ पत्रकार हाल के वर्षाे में भारतीय राजनीति में जिस तरह से सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच हर मुद्दे पर तलवारें खींची नजर आती थी,उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जिस तरह से दोनों धड़ों में एकजुटता देखने को मिल रही है,उससे देश की आम जनता काफी खुश है,वहीं पाकिस्तान में इसके उलट नजारा नजर आ रहा है। पड़ोसी मुल्क में विपक्ष लगातार प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को कोसने और उन्हें नाकाबिल नेता साबित करने में लगा है। मोदी और शरीफ की तुलना शेर और सियार के रूप में की जा रही है। बहरहाल,भारत के लिये यह सुखद है कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी सरकार के हर कदम पर विपक्ष बिना किसी शर्त के पूरी मजबूती से खड़ा है। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले और उसके जवाब में भारतीय सेना द्वारा चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद पूरे राजनीतिक परिदृश्य में ए...
(प्रोपेगेंडा और झूठी ख़बरों से सतर्क रहें)

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SPECIAL ISSUE, घोटाला, प्रेस विज्ञप्ति, विश्लेषण
(प्रोपेगेंडा और झूठी ख़बरों से सतर्क रहें) "जब खबरें बनती हैं हथियार: युद्ध, प्रोपेगेंडा और फेक न्यूज" (प्रोपेगेंडा और झूठी ख़बरों से सतर्क रहें)"जब खबरें बनती हैं हथियार: युद्ध, प्रोपेगेंडा और फेक न्यूज"युद्ध के दौरान फैलाई गई झूठी खबरें न केवल सैनिकों और आम नागरिकों की सुरक्षा को खतरे में डालती हैं, बल्कि समाज में भय और नफरत का भी प्रसार करती हैं। यह न केवल जनता की भावनाओं को भड़काती है, बल्कि सच्चाई की नींव को भी कमजोर करती है। कई बार युद्ध के मैदान से बहुत दूर बैठे लोग भी इन झूठी खबरों के शिकार बन जाते हैं और इससे राष्ट्र की एकता और संप्रभुता को भारी क्षति पहुँचती है।युद्ध का समय हमेशा से मानव इतिहास का सबसे तनावपूर्ण और संवेदनशील दौर रहा है। जब दो देशों के बीच टकराव चरम पर होता है, तब सिर्फ हथियारों की ही नहीं, बल्कि सूचनाओं की भी लड़ाई लड़ी जाती है। प्रोपेगेंडा और झूठी ख़बरें इस ...
देश में ऑनलाइन लूडो के बढ़ते खतरे पर कैसे लगेगी लगाम

देश में ऑनलाइन लूडो के बढ़ते खतरे पर कैसे लगेगी लगाम

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देश में ऑनलाइन लूडो के बढ़ते खतरे पर कैसे लगेगी लगाम अजय कुमार,लखनऊ  रमेश, एक मध्यमवर्गीय परिवार का साधारण युवक था। शहर के एक निजी कंपनी में मामूली वेतन पर काम करता और अपने छोटे से परिवार के साथ खुशहाल जीवन बिता रहा था। उसकी दिनचर्या काम से घर और कभी-कभार दोस्तों के साथ चाय पीने तक ही सीमित थी। लेकिन कुछ महीने पहले, उसके एक सहकर्मी ने उसे ऑनलाइन लूडो के एक ऐप के बारे में बताया। शुरुआत में रमेश ने इसे सिर्फ मनोरंजन का एक साधन समझा। काम से लौटने के बाद या खाली समय में वह दोस्तों या अनजान लोगों के साथ लूडो खेलता, और कभी-कभार छोटी-मोटी बाजी भी लगा लेता। शुरुआत में सब कुछ रोमांचक और मजेदार लग रहा था। जीत की खुशी और हार का मामूली गम, यह सब उसकी नीरस जिंदगी में एक नया रंग भर रहा था। धीरे-धीरे, रमेश इस खेल का आदी होता चला गया। अब वह काम के दौरान भी चोरी-छिपे लूडो खेलने लगा था, और घर...
“केसीसी के नाम पर चालबाज़ी: निजी बैंकों की शिकारी पूँजी और किसानों की लूट”

“केसीसी के नाम पर चालबाज़ी: निजी बैंकों की शिकारी पूँजी और किसानों की लूट”

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"केसीसी के नाम पर चालबाज़ी: निजी बैंकों की शिकारी पूँजी और किसानों की लूट" डॉ सत्यवान सौरभ निजी बैंक किसानों को केसीसी योजना के तहत ऋण देते समय बीमा और पॉलिसियों के नाम पर चुपचाप उनके खातों से पैसे काट लेते हैं। हाल ही में राजस्थान में एक्सिस बैंक की ऐसी ही करतूत उजागर हुई जब एक किसान ने वीडियो बनाकर सच्चाई सामने रखी। यह केवल एक घटना नहीं, बल्कि पूरे बैंकिंग तंत्र में फैली एक भयावह प्रवृत्ति है। सरकार और आरबीआई की निष्क्रियता इसे और खतरनाक बनाती है। अब समय है कि किसान जागे, सवाल करे और अपना आर्थिक अधिकार माँगे। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह वाक्य हम स्कूलों में पहली कक्षा से पढ़ते आ रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या वाकई भारत का दिल किसानों के साथ धड़कता है? क्या सरकारें, बैंकिंग संस्थाएं, और आर्थिक नीति निर्माता इस कृषि प्रधानता का सम्मान करते हैं? हाल ही में राजस्थान के एक वी...
टीवी पर लाहौर जीत लिया, ज़मीन पर आँसू बहा दिए

टीवी पर लाहौर जीत लिया, ज़मीन पर आँसू बहा दिए

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टीवी पर लाहौर जीत लिया, ज़मीन पर आँसू बहा दिए— जब राष्ट्रवाद स्क्रीन पर चमकता है और असली ज़िंदगी में धुंधला पड़ जाता है। - प्रियंका सौरभ न्यूज़ चैनल राष्ट्रवाद को एक स्क्रिप्टेड तमाशे की तरह पेश करते हैं। रात में टीवी पर ऐसा माहौल बनाया जाता है मानो भारत ने पाकिस्तान पर हमला कर दिया हो, लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता। मीडिया, फिल्मों और चुनावी भाषणों में सर्जिकल स्ट्राइक जैसी सैन्य कार्रवाईयों का खूब प्रचार होता है, जबकि असली शहीदों और उनके परिवारों की पीड़ा को भुला दिया जाता है। सोशल मीडिया पर जब लोग सवाल पूछते हैं, तो उन्हें देशद्रोही कहकर चुप करा दिया जाता है। चुनावों के समय राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाकर असली समस्याओं जैसे बेरोजगारी और शिक्षा से ध्यान भटका दिया जाता है। यह लेख पाठकों से पूछता है — क्या वे सिर्फ इस दिखावे का हिस्सा बनकर ताली बजाते रहेंगे या असली देशभक्ति दिखाते हुए स...
बेतुके बयानों से बचें एवं राजनीतिक सहमति कायम रखें

बेतुके बयानों से बचें एवं राजनीतिक सहमति कायम रखें

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बेतुके बयानों से बचें एवं राजनीतिक सहमति कायम रखें- ललित गर्ग- पहलगाम की बर्बर आतंकी घटना ने भारत की आत्मा पर सीधा हमला किया है, इसमें पाकिस्तान की स्पष्ट भूमिका को देखते हुए देश की एक सौ चालीस करोड जनता चाहती है कि अब पाकिस्तान को सबक सीखाना जरूरी हो गया है, नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी इसे गंभीरता से लिया और पाकिस्तान के खिलाफ कठोर एक्शन लेते हुए सिंधु जल को रोकने जैसे पांच कदम उठाये। दोनों ही देशों के बीच युद्ध की स्थिति बनी है, यह पहली बार देखने को मिला है कि इस घटना को लेकर कश्मीर सहित समूचा देश एक दिखाई दे रहा है। ऐसे क्रूर, आतंकी एवं अमानवीय हमले के वक्त में पूरा देश दुख और गुस्से की मनःस्थिति से गुजर रहा है, जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने शांति और सांप्रदायिक सद्भाव का एक सशक्त संदेश दिया है। सभी राजनीतिक दल, जाति, वर्ग, धर्म के लोग पाकिस्तान को करारा जबाव देने के लिये मोदी सरकार के हर ...
UPSC टॉपर या जाति टॉपर?: प्रतिभा गुम, जाति और पृष्ठभूमि का बाज़ार गर्म।

UPSC टॉपर या जाति टॉपर?: प्रतिभा गुम, जाति और पृष्ठभूमि का बाज़ार गर्म।

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UPSC टॉपर या जाति टॉपर?: प्रतिभा गुम, जाति और पृष्ठभूमि का बाज़ार गर्म। देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा अब जातीय गौरव का तमाशा बन चुकी है। जैसे ही रिज़ल्ट आता है, प्रतिभा और मेहनत को धकिया कर जाति, धर्म और ‘किसान की झोपड़ी’ की स्क्रिप्ट सोशल मीडिया पर दौड़ने लगती है। एसी कमरों में पढ़ने वाले अब खुद को किसान का बेटा घोषित करते हैं, ताकि संघर्ष बिके। टॉपर बनने के बाद सेवा की बजाय सेल्फी और सेमिनार का मोह शुरू हो जाता है। हर दल, हर विचारधारा, हर वर्ग अपने-अपने टॉपर को पकड़कर झंडा उठाता है — “देखो, ये हमारा है!”किसी को सवर्ण गौरव चाहिए, किसी को दलित चमत्कार। और इस पूरे मेले में असली हीरो — यानी मेहनत और ईमानदारी — कहीं कोने में खड़ी, अकेली, उपेक्षित रह जाती है। UPSC अब परीक्षा नहीं, जातीय राजनीति, इमोशनल मार्केटिंग और ब्रांडिंग का अखाड़ा बनता जा रहा है। और सवाल वही — ये अफसर समाज सेवा...
एक ज़रूरी बचाव, साइबर सतर्कता या शोरगुल?

एक ज़रूरी बचाव, साइबर सतर्कता या शोरगुल?

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एक ज़रूरी बचाव, लेकिन क्या लोग ऊब गए हैं?1930 की चेतावनी और पकते कान: साइबर सतर्कता या शोरगुल? साइबर क्राइम हेल्पलाइन 1930 और ऑनलाइन ठगी से बचाव की चेतावनियाँ इतनी बार सुनाई देने लगी हैं कि लोग अब इनसे ऊबने लगे हैं। बैंक, फोन कंपनियाँ, न्यूज़ चैनल्स, और सोशल मीडिया हर जगह साइबर फ्रॉड के अलर्ट्स छाए हुए हैं, जिससे लोग ठगी से कम और चेतावनी से ज़्यादा परेशान हैं। अब हालात ऐसे हो गए हैं कि असली कॉल्स और स्कैम्स में फर्क करना भी मुश्किल हो रहा है—हर मैसेज पर शक, हर कॉल पर संदेह! लोग इतने सतर्क हो गए हैं कि जरूरत पड़ने पर भी मदद माँगने वालों से पहले आधार कार्ड और पैन नंबर मांगने लगते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि अगर किसी को गुप्त एजेंसी के लिए जासूसी करनी हो, तो उन्हें "साइबर क्राइम से बचें" जैसे संदेशों को बैकग्राउंड म्यूजिक बना देना चाहिए। जितनी बार हम अपने फोन, टीवी, बैंक मैसेज, या ...
जजों की संपत्ति का प्रकटीकरण पारदर्शिता की ओर कदम

जजों की संपत्ति का प्रकटीकरण पारदर्शिता की ओर कदम

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जजों की संपत्ति का प्रकटीकरण पारदर्शिता की ओर कदम-ललित गर्ग- न्यायपालिका पर जनता का भरोसा लोकतंत्र का अहम आधार है। न्यायिक प्रणाली में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रहे, इसके लिये न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता, जबावदेही एवं निष्पक्षता की जरूरत है, इसके लिये सर्वोच्च न्यायालय से निचली अदालतों तक के न्यायाधीशों को संपत्ति सार्वजनिक करने जैसे कदम उठाए जाने की अपेक्षा आजादी के अमृतकाल में तीव्रता से की जा रही थी, ताकि न्यायपालिका की पारदर्शिता को लेकर उठने वाले संदेह दूर हो सकें, यह मुद्दा जस्टिस यशवंत वर्मा के घर कथित तौर पर जली हुई नोटों की गड्डी मिलने जैसी घटनाओं और उनसे उपजे विवादों के बाद गंभीर सार्वजनिक विमर्श का बन गया था। जनचर्चाओं एवं आदर्श राष्ट्र-निर्माण की अपेक्षाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करने पर जो सहमति जताई है, वह सही दिशा...
जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक: एक अनदेखा संकट

जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक: एक अनदेखा संकट

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प्रियंका सौरभ जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक: एक अनदेखा संकट हाल ही में एक प्रमुख अखबार की हेडलाइन ने ध्यान खींचा—“शहर में बंदरों और कुत्तों का आतंक।” यह वाक्य पढ़ते ही एक गहरी असहजता महसूस हुई। शायद इसलिए नहीं कि खबर गलत थी, बल्कि इसलिए कि वह अधूरी थी। सवाल यह नहीं है कि जानवर शहरों में क्यों आ गए, बल्कि यह है कि वे जंगलों से क्यों चले आए? हम जिस "आतंक" की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रकृति का प्रतिवाद है—उस दोहरी मार का नतीजा जो हमने जंगलों और वन्यजीवों पर एक लंबे अरसे से चलाया है। विकास के नाम पर हमने जंगलों को काटा, नदियों को मोड़ा, और पहाड़ों को तोड़ा। वन्यजीवों के लिए न तो रहने की जगह छोड़ी, न भोजन का साधन। जब उनका प्राकृतिक निवास उजड़ गया, तब वे हमारी बस्तियों की ओर बढ़े। और अब, जब वे हमारी छतों, गलियों और पार्कों में दिखते हैं, तो हम उन्हें ‘आतंकी’ करार देते हैं। यह नजरिय...